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हीरोगीरी

 

ये बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के शुरूआती वर्ष थे। हिंदी सिनेमा गुणवत्ता के हिसाब से अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा था। थोक के भाव से हिंसा और अश्लीलता से भरी मसालेदार फ़िल्में रिलीज़ होती थीं। क्रिकेट का भी जलवा था, मगर क्रिकेट पूरे वर्ष ना होकर सीज़नल खेल हुआ करता था। सचिन तेंदुलकर देश की धड़कन बन चुके थे, लेकिन क्रिकेट 4-5 महीने ही टीवी पर आती थी, इसलिये पूरे वर्ष सिनेमा ही मनोरंजन का मुख्य साधन हुआ करता था। 

लोगबाग नई फ़िल्मों से निराश थे तो सिनेमा हॉल वाले पुरानी हिट फ़िल्में ही अक्सर लगाया करते थे। ऐसे ही किसी दौर में एक पुरानी हिट फ़िल्म ‘धर्मवीर’ सिनेमा हॉल में पुनः लगी। उसी वर्ष सिनेस्टार धर्मेंद्र की फ़िल्म ‘तहलका’ ने देश में लोकप्रियता का तहलका मचा दिया था। हम नवीं क्लास के लड़के धर्मेंद की फ़िल्में देखना चाहते थे। तभी धर्मवीर लग गयी। उन दिनों किसी लड़के की क्रिकेट और फ़िल्म में रुचि ना हो। ये क़रीब-क़रीब असंभव बात थी। 

लेकिन धरती वीरों से ख़ाली नहीं थी। मेरा सबसे क़रीबी दोस्त अरुण कुमार था। वह उन दोनों आकर्षणों में कोई विशेष रुचि नहीं रखता था। हो सकता है कि उसकी कम रुचि का कारण ये रहा हो कि मुहल्ले के लोग उसी के घर में टीवी देखने जाते थी जिसमें क्रिकेट और शनिवार-रविवार के धारावाहिक और फ़िल्में प्रमुख होती थीं। अब की पीढ़ी को ये बात बेहद हैरानी भरी लग सकती है लेकिन रामायण, महाभारत धारावाहिकों के प्रसारण के दौर में एक परिवार के लोग दूसरे परिवार के घर टीवी देखने जाया करते थे जो कि पड़ोस में मेलजोल बढ़ाने में काफ़ी सहायक हुआ करता था। 

धर्मवीर फ़िल्म के पोस्टर सड़कों पर जगह-जगह लगे थे। मुझे इंटर कॉलेज जाते हुए मानो पूछते हों “कि कब देखोगे धर्मवीर?” 

मुझसे पोस्टरों का चिढ़ाना देखा नहीं जा रहा था। मेरे लिये असह्य हो रहा था। मेरे प्रिय ही-मैंन धर्मेंद की फ़िल्म को नज़रअंदाज़ करना और ये डर भी था कि पुरानी फ़िल्म है पता नहीं कब रातों-रात उतर जाये? सो जल्द से जल्द देख ली जाए। 

सो मैंने चुनौती स्वीकार कर ली कि “देखेंगे तुझे धर्मवीर मगर कैसे?” 

ये वो दौर था जब माता-पिता का स्पष्ट मानना था कि “पैसा पाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं।” दौर का असर तो हर घर में था लेकिन ऐसा लगता था कि ये सिद्धांत मानों मेरी मम्मी ने ही प्रतिपादित किया हो। 

सो जेबख़र्च के नाम पर हमें फूटी कौड़ी भी नहीं मिलती थी। यदि कुछ खाना-पीना हो बाहर का, तो बड़े भाई के साथ जाओ। उन्हीं को पैसे दे दिए जाते और वही भुगतान करते थे। चाट, बर्फ़, आइसक्रीम वग़ैरह दरवाज़े पर बिकने आती थी तो वहीं घरवाले ख़रीद देते। एक धेला भी मुझे अपने हाथ से ख़र्च करने को नहीं मिलता। पैसे ख़र्च करने को इसलिये नहीं मिलते थे, क्योंकि पैसे ख़र्च करने में यदि लड़के ने पैसे बचा लिए तो पैसे-पैसे जोड़कर लड़का रुपया बना लेगा और रुपये से लड़का फ़िल्म देख लेगा। लड़का फ़िल्म देख लेगा तो बिगड़ जायेगा जैसे महल्ले के कई लड़के बिगड़ गए। सो लड़के को बिगड़ने से बचाना है तो उसे पैसे हरगिज़ ना मिलने दो। पैसा नहीं होगा तो ना ही वह फ़िल्म देखेगा और ना ही बिगड़ेगा। 

इस फिलासफी से त्रस्त मैं कड़का ही रहता था। लेकिन अरुण के घर की हालत ज़रा अलग थी। उसकी माँ गाँव में रहती थीं। वह पिता और भाई के साथ रहता था। उसके बड़े भाई बीमार रहा करते थे और पिता नौकरी के सिलसिले में अक्सर बाहर रहते थे। सो घर के सामान वही ख़रीदकर लाता था। उसके हाथ में हमेशा पैसे रहते थे। अरुण मेरा पड़ोसी था, मुझसे उम्र में दो तीन साल बड़ा था, क्लास में भी मुझसे दो दर्जा आगे रहा करता था। लेकिन वो पढ़ने में बहुत कच्चा था। एक साल फ़ेल होने और एक साल विद्यालय बदलने के चक्कर में वो दो साल उसी क्लास में रुका रहा। 

नतीजा इंटर कॉलेज में क्लास नौ में हम दोनों एक ही क्लास के एक सेक्शन में थे। महल्ले का पड़ोसी होने के कारण उससे पुरानी मित्रता थी हमारी। लेकिन क्लास एक होने से वह मित्रता और भी प्रगाढ़ हो गयी। वह अपनी पढ़ाई-लिखाई के लिये मुझ पर निर्भर रहा करता था और मैं अपने परिवार से वर्जित माने जाने ख़र्चों के लिये काफ़ी हद तक उस पर निर्भर रहता था। जिसमें सिनेमा देखना और चाट खाना ही प्रमुख था। 

धर्मवीर के लिये मैंने उससे बात की। उसने कोई ख़ास रुचि ना दिखाई। क्योंकि पहली बात उसने कहीं गाँव में वीडियो पर धर्मवीर देख ली थी कुछ वक़्त पहले ही। दूसरे उसका भी पैसों से हाथ तंग था। क्योंकि उसकी अम्मा उन दिनों गाँव से शहर आयी हुई थीं और उसके पापा सारे पैसे उसकी अम्मा को ही देकर जाते थे। उसकी अम्मा की सोच भी मेरी मम्मी जैसी ही थी कि “पैसा पाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं।” सो वह भी फ़िल-वक़्त “ठन ठन गोपाल” ही था। 

जब मैंने अपना प्रस्ताव और उत्कट इच्छा अरुण के सामने प्रकट की तो उसने पैसों को लेकर अपनी विवशता बताई और ख़ुद को असमर्थ बताया। 

उसकी बात सुनते ही मेरा चेहरा उतर गया और मन बैठ गया। मैं कॉलेज से उसके पास से घर चला आया। दोपहर भर मुँह ढाँपे अँधेरे कमरे में पड़ा रहा। ढली दोपहर वह मुझे ट्यूशन पढ़ने के लिये बुलाने आया। मैंने पेट दर्द का बहाना करके घरवालों से कहलवा दिया कि मैं आज नहीं जा सकूँगा। 

शाम को वह मुझे फिर बुलाने आया। पॉवर हाउस के मैंदान में “सिक्स ए साइड” टूर्नामेंट चल रहा था। जिसे हम रोज़ देखने जाते थे। इस दिलचस्प टूर्नामेंट में एक तरफ़ ही सिर्फ़ सिक्स मारना होता था। ना कोई रन दौड़ना और ना ही किसी दूसरी तरफ़ कोई सिक्स मारना। सिर्फ़ एक तरफ़ ही छक्के मारने का टूर्नामेंट था जिसके विजेता टीम को दो सौ रुपये मिलने थे। यानी पूरी विजेता टीम का हर खिलाड़ी क़रीब चार फ़िल्में जीते हुए पैसों से देख सकता था। क्योंकि बाल्कनी के टिकट सिर्फ़ पाँच रुपये के आते थे। तक़रीबन हर दिन वो टूर्नामेंट मैं देखने जाता था और हमेशा अरुण के साथ ही जाता था। इसकी वजह यह थी कि उस टूर्नामेंट में अपना एक बेहद जिगरी दोस्त संजय मिश्रा भी खेल रहा था। संजय क्रिकेट का बहुत ही बड़ा कीड़ा था। उसकी दुनिया में क्रिकेट के अलावा कुछ भी नहीं था। संजय मेरा पुराना पड़ोसी हुआ करता था मगर अब दूसरे महल्ले में रहता था। उससे मित्रता तो बहुत थी मगर मुलाक़ात कम ही हो पाती थी। क्योंकि वह हमेशा क्रिकेट ही जीता था। वह या तो क्रिकेट खेलता था या क्रिकेट देखता था। इस सबसे कभी ख़ाली होता था तो वह सिर्फ़ क्रिकेट की बातें करता था। महल्ले में क्रिकेट, घर में पाँच-छह भाई-बहनों के साथ क्रिकेट, इंटर कॉलेज में क्रिकेट, ट्यूशन में क्रिकेट। 

संजय मिश्रा हर दिन शहर के किसी महल्ले में किसी ना किसी टूर्नामेंट में किसी ना किसी टीम से खेलता ही रहता था। अगर टूर्नामेंट नहीं चल रहे होते थे तो प्रैक्टिस करता। संजय एक आक्रामक तेज़ बल्लेबाज़ था और उससे भी ज़्यादा ख़तरनाक तेज़ गेंदबाज़ भी था। सब उसे कपिलदेव बुलाते थे। वह पढ़ने में तो ठीक था। लेकिन पढ़ता बिल्कुल भी नहीं था। कॉलेज की पढ़ाई के काम और ट्यूशन के लिये वो मुझ पर पूर्ण निर्भर था। उसका छोटा भाई जिसे सब रवि शास्त्री बुलाते थे। अक्सर मेरे घर आकर कॉपियाँ ले जाता और उसकी बहनें उसका काम पूरा करती थीं। 

संजय का सेमीफ़ाइनल था “सिक्स ए साइड” टूर्नामेंट का। संजय अगर टूर्नामेंट जीत जाता तो मुझे फ़िल्म ज़रूर दिखाता। लेकिन टूर्नामेंट का फ़ाइनल तीन दिन बाद था और वो भी शाम को। अगर संजय टूर्नामेंट जीत भी गया तो मुझे वो चार दिन बाद ही फ़िल्म दिखा सकता था और तब तक फ़िल्म के बदल जाने की पूरी सम्भावना थी। 

एक और बात थी फ़िल्म मेरा शौक़ थी और क्रिकेट संजय का पैशन था। उसके सपने और जीना-मरना सब क्रिकेट ही था। उसे हमेशा ही बैट, पैड, ग्लव्स वग़ैरह की कमी रहा करती थी चाहे वह जितना भी जुटा ले। उसे नए-पुरानी किसी भी क्रिकेट के सामग्री से कोई परहेज़ नहीं था। वह अपनी ज़रूरत की पुरानी सामग्री अन्य खिलाड़ियों से या तो ख़रीद लेता था या मुफ़्त में माँग लाता था। मुझे पता था कि उसे बैटिंग ग्लोव्स ख़रीदने हैं इसलिये मैं अपने शौक़ के लिये संजय के सपनों की बलि नहीं दे सकता था। सो मैंने मन ही मन संजय के फ़िल्म दिखाने के सपनों को अपनी आत्मा की आवाज़ पर ख़ारिज कर दिया था। 

अरुण मुझे संजय का सेमीफ़ाइनल मैंच देखने के लिये बुलाने आया लेकिन मैंने वही पेट दर्द का बहाना करके जाने से इनकार कर दिया। 

अगले दिन भी मैंने पेटदर्द का बहाना जारी रखा। सुबह अरुण साइकिल लेकर मुझे बुलाने आया लेकिन मैंने उससे घर के भीतर से ही तेज़ आवाज़ में कहलवा दिया कि “मैं नहीं जा सकूँगा, पेट में दर्द है।” 

अरुण निराश होकर चला गया। अरुण जानता था कि मैं उससे नाराज़ हूँ। मैं उससे नाराज़ नहीं था बल्कि अपने आप से ही अनमना और खिन्न था। मुझे ख़ुद से कोफ़्त हो रही थी और अपनी हालत से ख़ासा नाराज़ भी था। मुझे मेरे घर वालों पर भी बहुत ग़ुस्सा आ रहा था लेकिन क्या कर सकता था? क्योंकि सिनेमा हाल में जाकर सिनेमा देखने की बात से घर में मेरी भयंकर पिटाई निश्चित थी। 

अगला दिन भी यूँ ही बीता। मैंने घर में भी पेट दर्द का बनाये रखा। मैं ना तो कॉलेज ना ही टयूशन गया और कहीं खेलने भी नहीं गया। 

तीसरे दिन सुबह अरुण आया। उसने आते ही मुझसे कहा, “नाटक मत फैलाओ। मैंने पैसों का जुगाड़ कर लिया है लेकिन सिर्फ़ पाँच रुपये का जुगाड़ हो सका है। अब एक काम करो या तो इन पाँच रुपयों से तुम अकेले ही बाल्कनी देख लो या तो हम दोनों सेकेंड क्लास देख लें। लेकिन अगर फ़िल्म देखनी है तो कॉलेज चलना होगा और वहीं से खिसकना होगा।” 

“खिसकना तो होगा लेकिन कॉलेज से सीधे नहीं। क्योंकि भैया को पता चल जायेगा। तुम्हारे और हमारे दोनों के बड़े भाई भी उसे कॉलेज में हैं सो कोई हमारी क्लास चेक करने आ गया तो? ऐसा करते हैं कि कॉलेज जाएँगे भी और कॉलेज से हम तुरंत लौट आयेंगे कोई बहाना बनाकर। घर पर आकर बारह बजे बता देंगे कि वसीम के भाई के बारात में जाना है। मुसलमानों में शादियाँ दिन में होती ही हैं। सो कोई हम पर शक भी नहीं करेगा,” मैंने राह सुझाई। 

“और खाना? वसीम के भाई की बारात में भी नहीं जाएँगे और घर पर बताकर जाएँगे कि बारात में जा रहे हैं तो घर पर खाने का सवाल ही नहीं रहेगा। तो हम खाना कब और कहाँ खाएँगे। तू तो जानता है कि मुझसे भूख बरदाश्त नहीं होती,” अरुण ने अपनी चिंता ज़ाहिर की। 

“अब दोस्ती में इतना तो करना ही पड़ेगा। हमारी दोस्ती भी धर्मवीर की जोड़ी है। एक टाइम का खाना मत खाना यार। मैं भी तो भूखा रहूँगा। कुछ ना कुछ जुगाड़ कर लेंगे,” मैंने उसे प्रोत्साहित करने का प्रयास किया। 
अरुण मेरी बात से मुतमईन ना हुआ। लेकिन मेरी योजना में वह बेमन से ही सही, आख़िरकार शामिल हो ही गया। 

योजनानुसार हम कॉलेज गए। दो पीरियड बाद ही मैंने पेटदर्द का बहाना बनाकर कॉलेज से छुट्टी ले ली। जिस तरह के पेट दर्द के भयंकर होने की मैंने दुहाई दी थी और किसी की मदद की दरकार भी चाही थी। उसी तरह तुरन्त अध्यापक द्वारा मुझे सुरक्षित घर पहुँचाने के लिये अरुण को भी छुट्टी दे दी गयी। 

वसीम जो हमारे टयूशन का साथी था। उसने हमें कार्ड तो दिया था लेकिन बारात में नहीं बुलाया था बल्कि वलीमे में बुलाया था। जो कि एक दिन बाद होना था। उसका कार्ड हमारी ढाल बना और हम बारात के नाम पर घर से चल दिये। 

मैंने अपनी योजना को अमली रूप देने के लिये नए कपड़े भी पहने और क्रीम, पाउडर, सेंट भी लगाया ताकि बिल्कुल बाराती लगूँ। लेकिन अरुण ने ऐसी कोई पहल नहीं की। क्योंकि उसके घर में पूछताछ भी ज़्यादा नहीं थी। 

छिपते-छिपते रेलवे लाइन के किनारे चलते हुए हम सिनेमा हॉल पहुँच गए। गेट के बाहर ही छिपे रहे ताकि कोई अड़ोस-पड़ोस का या घरवालों का परिचित हमें देख ना ले जो बाद में हमारी पिटाई की वजह बने। 

जब हूटर बजा कि फ़िल्म शुरू हो गयी तो सिनेमा हॉल का अहाता ख़ाली हो गया और टिकट खिड़की सुनसान। हमने मैंदान साफ़ देखा और दौड़ कर अंदर गए और सवा दो रुपये के हिसाब से सेकेंड क्लास की दो टिकटें ख़रीद लीं। 

सैकेंड क्लास का एक विशेष दरवाज़ा था। वहाँ जाने पर एक व्यक्ति ने हमें टिकट देखकर अंदर किया और फिर टॉर्च की रोशनी में ले जाकर हमें एक सीट की क़तार पर छोड़ दिया। हम अपनी रुचि के स्थान पर बैठे। 
इंटरवल तक हमने फ़िल्म का लुत्फ़ लिया। इंटरवल में हमें बहुत ज़ोरों की भूख लगी थी। पचास पैसे में पेट कैसे भरे? कोई और दिन होता तो हम चाट खाते लेकिन आज चाट से पेट नहीं भरने वाला था। 

सो हमने सिंघाड़ा ख़रीदा जो पचास पैसे में पाव भर मिल गया। इस ठोस अल्पाहार से हममें एक ताज़गी और ऊर्जा आ गयी। फ़िल्म दुबारा शुरू हुई इंटरवल के बाद। अब हमें फ़िल्म में और भी लुत्फ़ आने लगा था। 

हाल में रोशनी फैल गयी थी सिनेमा के पर्दे पर चल रहे दृश्यों की वजह से। हमने देखा कि सेकेंड क्लास में हमारे अलावा गिनती के ही लोग थे। बाल्कनी ऊपर हुआ करती थी। जिसका टिकट पाँच रुपये होता था। जीने से चढ़कर जाना पड़ता था। बाल्कनी में बैठे लोग सामने पर्दे पर बराबरी से सिनेमा देख सकते थे। उन्हें गर्दन नहीं उचकानी पड़ती थी। नीचे के तल पर डीसी हुआ करता था जिसका टिकट तीन रुपये पचहत्तर पैसे होता था। ये भूतल पर मगर थोड़ी ऊँचाई पर होता था। गेटमैन यहीं पर खड़ा रहता था। यहाँ से भी सिनेमा देखते समय गर्दन उठाकर नहीं देखना पड़ता था। उसके बाद थोड़ी ढलान पर उसी तल पर फ़र्स्ट क्लास होता था जिसमें थोड़ी से गर्दन उठाकर देखना पड़ता था। इसका शुल्क सवा तीन रुपये होता था। उसके बाद तनिक गहरी ढलान पर सिनेमा के पर्दे के बिल्कुल पास सेकेंड क्लास होता था। जिसमें गर्दन ऊँची करके पूरी फ़िल्म देखनी पड़ती थी और साउंड सिस्टम पास लगे होने के कारण फ़िल्म की आवाज़ साफ़ नहीं सुनाई पड़ती थी और इसी सेकेंड क्लास में हम विद्यमान थे। 

एक बार फ़िल्म शुरू होने के बाद नीचे के तल के सभी गेट बंद कर दिए जाते थे। और डीसी के इकलौते गेट पर टिकट चेक करने वाला व्यक्ति मौजूद रहता और वही डीसी, फ़र्स्ट क्लास और सेकेंड क्लास की सीटें, टिकट आदि चेक करता रहता था। 

हम अक्सर चोरी-चुपके से फ़िल्में देखते आते रहते थे और उस बेहद लहीम-सहीम गेट मैंन को पहचानते थे जो क़रीब छह फ़ुट से ऊपर का पहलवान टाइप का व्यक्ति था। जो हमेशा लम्बी टार्च लेकर दिख ही जाता था साइकिल से आते जाते। वह हमारे शहर के ही नीलबाग महल्ले में रहता था। 

मैंने अरुण से कहा, “फ़र्स्ट क्लास ख़ाली है। यहाँ साउंड का शोर भी बहुत है। डायलॉग समझ में नहीं आते। गर्दन उठाकर देखते-देखते अकड़ गयी है। चल वहीं बैठते हैं।” 

अरुण ने कहा, “नहीं रहने दो, गेटमैन आ गया तो? फ़र्स्ट क्लास में बैठे हुए पकड़े गए तो फ़र्स्ट क्लास का जुर्माना लग जायेगा। और अब एक भी पैसा नहीं है अपने पास। बवाल हो जाएगा बेवजह। मुझे नहीं जाना।” 

“कुछ नहीं होगा यार। जो होगा मैं निपट लूँगा। तू चल तो मेरे साथ सही। मेरी ज़िम्मेदारी है,” मैंने उसे आश्वासन दिया। 

अरुण आनाकानी करता रहा। मैं उससे लगातार कहता रहा। थोड़ी देर बाद अरुण मेरे दबाव से टूट गया और हम दोनों फ़र्स्ट क्लास में आकर बैठ गये। 

बीस मिनट ही बीते होंगे कि कि वही पहलवान छाप गेटमैन टिकट चेक करने आ गया। उसने हमारी टिकटें चेक की और सख़्ती से पूछा, “सेकेंड क्लास का टिकट लिया है तो फ़र्स्ट क्लास में क्यों बैठे हो?” 

“ये इधर ख़ाली ही थीं कुर्सियाँ तो हम इधर ही आ गए। यूँ ही बैठ गए। कोई यहाँ बैठा थोड़ी ना है,” मैंने अपना तर्क दिया। 

“अच्छा, तुम्हारा घर है क्या कि जहाँ चाहोगे वहाँ बैठ जाओगे। ख़ाली तो बाल्कनी में भी हैं कुर्सियाँ तो क्या सेकेंड का टिकट लेकर बाल्कनी में बैठ जाओगे। उठकर चुपचाप चले जाओ और सेकेंड क्लास में बैठो,” उसने तल्ख़ लहजे में कहा। 

उसके घुड़कने पर हम आकर सेकेंड क्लास में फिर से बैठ गए और वह अँधेरे में कहीं गुम हो गया। 

फ़िल्म आधे घंटे और चली लेकिन मैं सेकेंड क्लास की परेशानियों से फ़िल्म का पूरा मज़ा नहीं ले पा रहा था और फिर फ़र्स्ट क्लास में थोड़ी देर तक मैं फ़िल्म देखने का सुख ले चुका था। सो अब यह सेकेंड क्लास की असुविधा अब मुझे और भी खटकने लगी थी। मैंने अँधेरे में गर्दन घुमाकर टोह ली और जब सन्तुष्ट हो गया कि गेटमैन आसपास कहीं नहीं है तो मैंने अरुण से कहा, “चल यार। यहाँ मज़ा नहीं आ रहा है। चलकर फ़र्स्ट क्लास में बैठते हैं। गेटमैन नहीं है। वो गेट के बाहर चला गया है। चल चलते हैं। अबकी फ़र्स्ट क्लास के दूसरे कोने में बैठेंगे। वहाँ हमें कोई भी देख नहीं पायेगा। यह पक्की बात है।” 

“उस बार तो गेटमैन ने छोड़ दिया था लेकिन इस बार या तो जुर्माना करेगा या पिटाई। मुझे नहीं जाना। तुझे जाना है तो जा,” अरुण ने मुझे टका सा जवाब दिया। 

अगले पाँच मिनट तक मैं अरुण को मनाता रहा और वो आनाकानी करता रहा। अंततः अरुण ने फिर उकताकर हामी भर दी और हम सेकेंड क्लास की अपनी सीट छोड़कर फ़र्स्ट क्लास में एक ऐसी जगह जाकर बैठ गए। जहाँ हमारे मुताबिक़ हमें कोई पकड़ नहीं सकता था। 

दस मिनट भी नहीं बीते थे कि वही पहलवान गेटमैन फिर हाज़िर हुआ। इस बार उसने हमसे टिकट नहीं माँगे। वो जानता ही था कि हम सेकेंड क्लास वाले हैं और एक बार उसकी चेतावनी को नज़रअंदाज़ कर चुके हैं। 

उसने बिना किसी भूमिका के लगभग डाँटते हुए हमसे कहा, “पिछली बार छोड़ दिया था तो तुम लोग की समझ में नहीं आया। सेकेंड क्लास की टिकट लेकर फ़र्स्ट क्लास में नहीं बैठ सकते। चुपचाप उठकर सेकेंड क्लास में चले जाओ। नहीं तो वो झापड़ मारूँगा कि दाँत टूट कर हाथ में आ जाएँगे। सारी हीरोगीरी निकल जायेगी। चलो उठो यहाँ से।” 

उसके हड़काने पर हम तुरन्त वहाँ से उठ लिये। अरुण भुनभुनाते हुए और अंगारों पर लोटते हुए वहाँ से उठा और उसके पीछे-पीछे मैं भी चल दिया। हम दोनों फिर आकर सेकेंड क्लास में बैठ गए। 

फ़िल्म मुश्किल से आधे घंटे की बची रही होगी। फ़िल्म के रंग में हम भी रँग गए और अपने साथ हुए थोड़ी देर की घटनाओं की कड़वाहट हमारे मन से मिट चुकी थी। पुरानी फ़िल्मों अंतिम एक्शन के दृश्य बहुत लंबे होते थे जो अक्सर एक गीत के साथ समाप्त होते थे। जब अन्तिम गीत शुरू हुआ तो मैंने सोचा कि अंतिम एक्शन के सीन अच्छे तरीक़े से बैठकर फ़र्स्ट क्लास में देख लिया जाए अब आख़िर के कुछ मिनटों में क्या फ़र्स्ट और सेकेंड क्लास का मसला रह जाता है? 

मैंने अपना प्रस्ताव फिर अरुण के सामने रखा उसने तुरंत हाथ खड़े कर दिए और मुझसे कहा, “तुझे याद हो ना हो मगर मुझे याद है कि उस पहलवान ने क्या कहा था कि इतना मारेगा कि दाँत टूट जाएँगे। तेरा मन रखने के लिये दो बार गया अब नहीं पिटना मुझे। उधर पर्दे पर धर्मेंद पीटेगा किसी को और इधर गेटमैन हम दोनों को पीट देगा। तुझे जाना है तो जा और पिट ले। मुझे उस पहलवान से मार नहीं खानी।” 

अरुण ने मेरी बात तो ख़ारिज कर दी लेकिन मैं जानता था कि अरुण को मना लेना मेरे लिये कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। 

“मारेगा कैसे, मारेगा तो हम दोनों उसे पटक कर मारेंगे। अगर वो भिड़ा तो हम दोनों एक साथ उससे भिड़ जाएँगे। गेटमैन की इतनी औक़ात कि वो हमको मारेगा। तू चल तो सही देख लेंगे उसको। वैसे भी वो अब गेट पर रहेगा। अब टिकट चेक करने थोड़ी ना आएगा। कुछ ही मिनट तो बचे हैं अब उसे पिक्चर हाल के सब दरवाज़े खोलने हैं। अब वो अंदर नहीं आएगा, पक्की बात है ये,” मैंने उसे तसल्ली दी। 

अरुण मेरे तर्कों से सन्तुष्ट नहीं दिख रहा था लेकिन मैं उसको लगातार बोलता रहा तो हमेशा की तरह उसने उकताकर हामी भर दी। 

लेकिन इस बार अरुण बेहद सतर्क और चौकन्ना था था। उसने भी गर्दन घुमाकर, सिनेमा हॉल के आधी-अधूरी रोशनी में आँखें फाड़-फाड़कर देखा कि गेटमैन कहीं आसपास तो नहीं है। 

उसे ऐसा करते देखकर मैं जान गया कि वह मेरी बात मान गया है। मैंने फ़र्स्ट क्लास की तरफ़ चलना शुरू किया और एक सीट पर जाकर बैठ गया। अरुण भी मेरे पीछे आ गया और मेरी बग़ल में बैठ गया। 

हम अभी ठीक से बैठे भी ना थे कि ना जाने कहाँ से गेटमैन लगभग दौड़ते हुए आया और उसने अपशब्दों का प्रयोग करते हुए अरुण की धुनाई शुरू कर दी। उसकी ज़ुबान और हाथ एक साथ चल रहे रहे थे उसने गालियाँ बकते हुए अरुण को आठ-दस घूँसे-तमाचे जड़ दिए। अरुण की इतनी ज़्यादा पिटाई देखकर मेरी घिग्घी बँध गयी। मुझे डर के मारे साँप सूँघ गया और अपनी सम्भावित पिटाई डर के मारे मेरे पाँव काँप गए और कलेजा लरज गया। 

मैं साँस रोके अपने पीटे जाने की प्रतीक्षा कर रहा था कि अगर अरुण को जितने तमाचे-घूँसे पड़े हैं क्या मुझे उतने ही पड़ेंगे या उससे कुछ ज़्यादा। हो सकता है गेटमैन का ग़ुस्सा कुछ कम हो गया हो और अरुण को पीटकर गेटमैन कुछ थक गया हो तो मुझे कुछ कम पीटे। मैं अपनी पिटाई की कल्पना करके लरजता रहा। लेकिन मेरा इंतज़ार ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा था। गेटमैन ने जी भर पीटने और गालियाँ देने के बाद अरुण को खींचकर एक तरफ़ खड़ा किया और सेकेंड क्लास में जाने का हुक्म सुनाकर और फिर जिधर से अँधेरे में आया था उधर ही अँधेरे में कहीं गुम हो गया। 

मैं हतप्रभ, अवाक्‌ और डर के मारे मतिशून्य हो गया था। अरुण तो मानों जड़ हो गया था। हम दोनों को कुछ भी समझ नहीं आया। मैं अरुण का हाथ पकड़कर उसे सेकेंड क्लास में ले आया। 

मैं डरा, सहमा और हैरान था और अरुण का चेहरा पिटाई से लाल और आँसुओं से तर-ब-तर था। अरुण मुझे देखे जा रहा था वह मानों मुझसे पूछना चाहता था कि कहाँ गयीं वो मेरी योजनाएँ जिसमें मैंने कहा था कि गेटमैन के हमला करते ही हम दोनों एक साथ उसके ऊपर टूट पड़ेंगे और मिलकर मुक़ाबला करेंगे किसी भी विषम परिस्थित का। कहाँ गयीं मेरी बातें, मेरी डींगें, मेरी मित्रता? 

अरुण मुझे देख रहा था और मैं शर्मिंदगी से उससे नज़रें मिला नहीं पा रहा था। सो उसकी नज़रों से अनजान बनने के लिये मैंने सिनेमाहाल के पर्दे पर नज़रें गड़ा दीं। 

थोड़ी देर में फ़िल्म ख़त्म हो गयी। हम चुपचाप बाहर निकले। बाहर आकर सिनेमा हॉल के अहाते में लगे नल में मैंने पानी पीने की बात की। मैंने सोचा कि अरुण भी पानी पी ले और हाथ मुँह धो ले तो थोड़ा सामान्य दिखेगा। वरना पिटाई से लाल और आँसुओं की वजह से फूला हुआ चेहरा हमारे साथ हुई अनहोनी की गवाही दे सकता है और फिर बात का बतंगड़ बन जायेगा। बात खुली और घर वाले जान गए तो हमारे अगले दौर की पिटाई निश्चित थी और जिसमें पिटाई का बड़ा हिस्सा मुझे ही मिलना था। 

हम दोनों ने हाथ मुँह धोया, पानी पिया, बग़ल में खड़ी मोटरसाइकिलों के शीशे में अपने बाल सँवारे और शॉर्टकट के रास्तों से अपने घरों के तरफ़ चल पड़े। 

रास्ते में हम साथ चल रहे थे तो मैंने अरुण को तसल्ली देते हुए कहा, “पहलवान गेटमैन बहुत लंबा चौड़ा था। हम दोनों मिलकर भी उससे शायद जीत ना पाते। फिर वहाँ अँधेरा भी बहुत था। जगह कम थी तो पटकते कैसे उसे? ये गेटमैन नीलबाग महल्ले में रहता है। सुबह ग्यारह बजे आता है ड्यूटी। साइकिल से आते-जाते देखा है इसे मैंने। संजय मिश्रा को भी ले लेंगे और किसी दिन हम तीनों मिलकर इसे ड्यूटी आते वक़्त पानी टँकी के पास पटक कर मारेंगे। बदला ज़रूर लेंगे, पहलवान की सारी हीरोगीरी निकाल देंगे, क़सम है हमको।” मैं ऐसा ही कुछ बोल रहा था और अरुण चलते-चलते मुझे एकटक देख रहा था। मैं जानता था कि वो मेरी आँखों में आँखें डालकर देखना चाहता था कि मेरे कहे का कोई मतलब बचा है क्या?

इसीलिये मैं बोल तो रहा था लेकिन अरुण से नज़रें मिला नहीं रहा था और सामने देखते हुए चला जा रहा था। 
इस घटना को आज तीन दशक बीतने को हैं और मैं आज भी सोचता हूँ कि उस दिन मेरी भी पिटाई क्यों नहीं हुई? क्या बारात जाने के नाम पर पहने गए नए कपड़ों और सेंट लगाने के कारण ही मैं पिटाई से बच गया था। और अरुण की ही पिटाई क्यों हुई थी जबकि सारी योजना तो मेरी थी। मन ही मन काफ़ी शर्मिंदा होने के बावजूद ना जाने क्यों मैंने अरुण से कभी इस बात के लिये माफ़ी नहीं माँगी और गेटमैन को कभी नहीं पीट पाया। अरुण ने इस घटना का ज़िक्र कभी किसी से नहीं किया। आगे चलकर हमारी मित्रता अच्छी ही रही। कुछ वर्षों बाद अरुण के पिता का तबादला बस्ती ज़िले में कहीं हो गया और वह हमारे शहर से चला गया। अरुण कहाँ है अब, मुझे नहीं पता? उसने मुझे कभी याद नहीं किया लेकिन मैं उसे कभी भुला नहीं सका। एक वह था जो मित्र की ख़ुशी के लिये कहीं से पैसों का जुगाड़ करके लाया और एक मैं था जो अपनी ख़ुशी के लिये उसे पिटता देखकर कुछ नहीं कर सका। ये कैसी हीरोगीरी थी? ये बात मैं अब तक मैं ख़ुद को भी नहीं समझा पाया। 

उस पिटाई का ज़िम्मेदार और हक़दार मैं था। लेकिन मेरे हिस्से का दंड अरुण ने भोगा, इस बात की टीस अब तक सालती है। 

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