गंगा को अब पावन कर दो
काव्य साहित्य | कविता दिलीप कुमार1 Dec 2025 (अंक: 289, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
गंगा को अब पावन कर दो
बहुत रो चुकी गंगा मैया
त्राहिमाम सा हुआ है प्रदूषण,
कितनी निर्मल होती थी गंगा
अब उसमें हैं कितने खर-दूषण,
ईश्वर उसकी मुक्ति का वर दो,
गंगा को अब पावन कर दो।
जीवन देती है सबको माँ गंगा
किन्तु मनुज देता है उसको मरण,
एक उबारे दूजा उसको मारे,
संबंधों का है कैसा ये तर्पण,
जीवनदायनी को तुम जीवन दो,
गंगा को अब पावन कर दो।
पुण्य ख़त्म हुआ गंगा का अब,
मानव के पाप से हुई वह मैली,
अंतिम साँसें प्राणदायिनी की भी,
आह-कराह में हुई हैं बदली,
अब तो उसे जीवन का वर दो,
गंगा को तुम पावन कर दो।
एक भगीरथ की फिर है ज़रूरत,
बनकर आई है जो नमामि गंगे,
आओ मिलकर हम सब आहुति दें,
ताकि धवल वस्त्र ना दिखें बेरंगे,
गंगा माँ की सब पीड़ा हर दो,
गंगा को तुम पावन कर दो।
देश, सभ्यता और काल से परे,
गंगा माँ सबकी झोली भरती,
पर पुण्यदायनी माता को देखो,
सिसक-सिसक कर रोती रहती,
स्वच्छ, धवल इसका आँचल कर दो,
गंगा को अब पावन कर दो।
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