आठ अस्सी
कथा साहित्य | लघुकथा दिलीप कुमार15 Dec 2022 (अंक: 219, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
फ़ुटपाथ के दुकानदार ने सख़्त लहजे में कहा, “यहाँ से जाओ चाचा, अस्सी रुपये में ये चप्पल नहीं मिलेगी, बढ़ाओ अपनी साइकिल यहाँ से।”
ये सुनकर वो सोच में पड़ गए कि फ़ुटपाथ की सबसे सस्ती दुकान पर तो वो तो खड़े हैं, अब इससे आगे वो कहाँ जाएँ अगर बेटे की पढ़ाई का ख़र्चा उनके सर पर ना होता तो ऐसी फ़ुटपाथी दुकान पर वो पेशाब करने भी नहीं आते। उन्हें बेटे की याद आयी।
उधर हनी ने कूल ड्यूड से ठुनकते हुए कहा, “बेबी, तुमने बोला था ना कि तुम मुझे मेरे बर्थ-डे पर मुझे मेरी पसंद का गिफ़्ट दोगे।”
“ऑफकोर्स बेबी, क्या लेना है तुमको, आई मीन कितने का गिफ़्ट लेना है तुमको?” कूल ड्यूड ने पूछा।
“बेबी, क्या गिफ़्ट लेना है ये तो सरप्राइज़ है, कितने का लेना है, तो सुनो गिफ़्ट बहुत महँगा है, तुम सिर्फ़ आठ हज़ार दे दो, बाक़ी मैं मैनेज कर लूँगी।”
बेबी ने जलवा बिखेरते हुए कहा।
“ओके श्योर बेबी, अभी एक फोन करके आता हूँ,” ये कहकर कूल डयूड मॉल से बाहर निकल आया।
कूल ड्यूड, सुंदरलाल शर्मा के बुढ़ापे का चिराग़ थे; एक ढहते हुए व्यक्ति के जिसे उम्र के ढल चुके पड़ाव पर बमुश्किल एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी।
उसी जिगर के टुकड़े कूल डयूड बेटे का फोन आया तो बाप ने झट से फोन उठाया और हुलसते हुए बोला, “हाँ बेटा, कैसे हो ?”
कूल ड्यूड ने कहा, “पापा, मैथ की एक्स्ट्रा कोचिंग क्लासेज जॉइन करनी हैं, आज ही लास्ट डेट है, फ़ीस भेज दो, बहुत अर्जेंट है, मैथ्स में नम्बर कम आये तो पूरा साल बेकार हो जायेगा, किसी तरह आठ हज़ार आज ही भेज दो।”
“अभी भेजता हूँ बेटे, कुछ ज़ोर-जुगाड़ करके।”
फ़ुटपाथ पर चप्पल ख़रीदने का मोल-भाव कर रहे शर्मा जी अपनी साइकिल लेकर पैसों के ज़ोर-जुगाड़ करने निकल पड़े।
कूल डयूड बेटे को सुंदरलाल शर्मा ने कुछ ही देर में पैसे बैंक से भेज दिए।
पैसों के बिना कूल ड्यूड और उसके साथ की युवती माल में अनमने से बैठे रहे।
मोबाइल में जैसे ही कूल ड्यूड के बैंक खाते में पैसे आने की सूचना आयी वैसे ही वो खिल उठा। कूल ड्यूड ने तुरन्त ही पैसा बेबी के खाते में ट्रांसफ़र कर दिया। बेबी पैसे पाकर निहाल हो उठी, उसने उत्साह में कूल ड्यूड को गले लगा लिया। उन दोनों ने इस क़द्र एक दूसरे को आलिंगनबद्ध किया कि देखने वाले भी शर्मा गए। बाप फोन मिलाकर इस बात को कन्फ़र्म करना चाहता था कि बेटे के खाते में पैसे पहुँचे या नहीं, बाप ने फोन किया, बेटे का मोबाइल बजता रहा, मगर बेटे ने आलिंगन तोड़कर मोबाइल उठाना गवारा ना समझा।
सुंदर लाल शर्मा थोड़े वक़्त बाद फिर उसी फ़ुटपाथ पर हाज़िर हुए और चप्पल का मोल-भाव करना वहीं से शुरू किया, जहाँ से कूल डयूड का फोन आने के बाद वो रुपयों का इतंज़ाम करने चले गए थे।
शर्मा जी के मोल-भाव से आजिज़ होकर चप्पल वाले ने खीझते हुए कहा, “बुढ़ऊ, काहे सौ की ख़रीद का माल अस्सी में ख़रीदने पर तुले हुए हो। इतना पैसा छाती पर लेकर स्वर्ग जाओगे क्या?”
“वो बात नहीं है भाई, मेरा बेटा कई सारी कोचिंग कर रहा है, उसी में सब पैसे जाते हैं। इस साल वो बहुत मेहनत कर रहा है, उसका कहीं चयन हो जाएगा, तो फिर मेरी ज़िम्मेदारी ख़त्म। कुछ दिनों की बात है। फिर तुमसे कोई झिकझिक नहीं होगी। लाओ चप्पल घिस गयी है मेरी। फ़िलहाल अस्सी रुपये ही हैं, बिना चप्पल के चलूँ क्या, ले लो अस्सी, मान जाओ भाई, हे-हे-हे,” ये कहकर हँसते हुए बेशर्मी से शर्मा जी ने चप्पल उठा ली और ज़बरदस्ती अस्सी रुपये फ़ुटपाथ पर बैठे दुकानदार की जेब में डाल दिये।
दुकानदार कुछ भुनभुनाते हुए शर्मा जी को जली-कटी सुनाने ही वाला था कि शर्मा जी ने झट से साइकिल मोड़ी और झोले में चप्पल रखकर पैंडल मारते हुए साइकिल आगे बढ़ा दी।
दुकानदार पीछे से शर्मा जी को आवाज़ लगाता ही रह गया और शर्मा जी तेज़ी से पैंडल मारते हुए सोच रहे थे कि बेटे ने फोन नहीं उठाया है इसका मतलब वो कोचिंग में बैठा पढ़ रहा होगा और उसे फोन उठाने की ना तो फ़ुर्सत होगी और ना ही अनुमति। साइकिल पर तेज़ी से पैंडल मारते हुए वो ज़िन्दगी के आठ-अस्सी के आगे के हिसाबों का गुणा-भाग करने में व्यस्त हो गए।
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