अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

वाचमैन

 

उस बहुमंज़िला इमारत में बहुत सी कम्पनियों के ऑफ़िस थे। मंदी आयी तो धीरे-धीरे क़रीब सारी कम्पनियों के ऑफ़िस बंद हो गए। एक्स और वाई दोनों अलग-अलग ऑफ़िसों में काम किया करते थे। 

उनकी पुरानी दोस्ती थी और यह भी इत्तिफ़ाक़ ही था कि एक ही बिल्डिंग में उनका ऑफ़िस भी था। दोनों नौकरी-याफ़्ता थे। मंदी में उनकी नौकरी चली गयी थी। वो दोनों जिस बिल्डिंग के ऑफ़िस में नौकरी करते थे उसी बिल्डिंग के ऑफ़िस में एक डिपार्टमेंटल स्टोर भी था। जिसमें रोज़मर्रा की ज़रूरतों के अलावा खाने-पीने का भी सामान मिलता था। 

उसी बिल्डिंग में ज़ेड वाचमैन था। जो विगत कई वर्षों से उन्हें सलाम किया करता था। अपने अच्छे दिनों में एक्स और वाई उसे चाय, सिगरेट आदि भी पूछ लिया करते थे। 

लेकिन मंदी ने सारे खेल बदल दिए और किसी को भी कहीं का नहीं छोड़ा। घर चलाने में जब एक्स और वाई के पसीने छूट गए तो उन दोनों ने चोरी का फ़ैसला किया। 

उन्होंने पहले रेकी की फिर तजवीज़ की और जब मुतमईन हो गए कि ज़ेड इस वक़्त अफ़ीम वाली सिगरेट पीकर नशे में क़रीब-क़रीब नीम बेहोशी की हालत में होगा। तो उन्होंने ख़ुद के हालात पर शर्मिंदा होने के बावजूद चोरी को अंजाम दिया। 

चोरी करके वो बिल्डिंग के सबसे महफ़ूज़ दरवाज़े से निकलने ही वाले थे। जिसे उस बिल्डिंग का ग़ालिबन “चोर दरवाज़ा” दरवाज़ा भी कहा जाता था। 

वो दोनों चोरी किये हुए सामानों से लदे-फँदे थे तभी अचानक उनके सामने ज़ेड अचानक आ खड़ा हुआ। 

सभी ने एक-दूसरे को हैरत से देखा। सबको अपने-अपने किरदार याद आये और अब सबकी कहानी एक दूसरे के सामने थी। 

ज़ेड की हैरानी देखकर एक्स ने कहा, “हम मजबूर थे और कोई रास्ता नहीं बचा था।” 

वाई ने कहा, “हमें ये सामान ले जाने दो, हमें पता है तुम्हारी भी हालत बहुत टाइट है। कई महीनों से तुमको भी सेलरी नहीं मिली है और आगे सेलरी मिलेगी भी नहीं। तुम्हेंं नौकरी से जवाब इसलिये नहीं दिया गया क्योंकि तुम सेलरी माँग ही नहीं रहे हो। या फिर ये भी बात हो सकती है कि तुम्हें कहीं और नौकरी मिल न रही हो। इसलिये यहाँ टाइम काट रहे हो। हमें भी तुम्हारी परेशानियों के बारे में मालूम है।” 

ज़ेड ने अनिश्चितता के स्वर में कहा, “तो उससे क्या?” 

एक्स ने कहा, “तो उससे ये कि ये चोरी हमारी मजबूरी है और तुम भी हमारी तरह मजबूर ही हुए। अब हम तीनों मजबूर ही हुए। हम ये घरेलू ज़रूरत का सामान तीन हिस्सों में बाँटेंगे। दो हिस्सा हम दो लोगों के घर जाएगा और तीसरा हिस्सा तुम्हारे घर पहुँचा देंगे। हमें पता है तुम हमसे ज़्यादा ज़रूरतमंद हो। इसलिये हमें जाने दो। यह कहकर एक्स ने उसके चेहरे पर नज़रें गड़ा दीं।” 

बड़ी देर तक एक्स और वाई ज़ेड के चेहरे को देखते रहे। वो उसके मनोभावों को ताड़ने की कोशिश करते रहे। 

उन तीनों के चेहरे पर कई भाव आये-गए लेकिन कोई किसी के मन की बात पढ़ न सका। 

अंत में एक्स और वाई समझ गए कि वैसा नहीं होगा जैसा होने की वो उम्मीद कर रहे हैं। हालाँकि ज़ेड ने न तो कुछ कहा था और न ही करने की कोशिश की थी। 

हारकर एक्स ने कहा, “ठीक है। हम सामान रख देते हैं। जब तुम हमारी बातें नहीं मान रहे हो तो अब वही होगा जो तुम चाहोगे।” 

वाई ने कहा, “तुमने हमारी बात नहीं मानी। हमने चोरी की और पकड़े गए। अब हम सामान छोड़ कर जा रहे हैं। अब तुम जो चाहो वो करो। हम जा रहे हैं ख़ाली हाथ। लेकिन चोरी तो हमने की ही और पकड़े भी गए अब तुम चाहो तो पब्लिक को बुला सकते हो और फिर हमें पुलिस के हवाले कर सकते हो।” 

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा कोई कुछ न बोला। तीनों एक दूसरे के मनोभावों को जानने की कोशिश करने लगे। 

ज़ेड ने जब कुछ नहीं किया तो एक्स और वाई ने उस चोर दरवाज़े की तरफ़ चलने को क़दम बढ़ाया तो ज़ेड बोल पड़ा, “रुकिये साहब, मेरे रहते आपने चोरी की है। भले ही आपने सामान छोड़ दिया लेकिन यूँ चोरी करके आप मेरे सामने से चले गए तो जन्म भर मेरी आत्मा मुझे फटकारेगी। अपनी ही नज़रों में गिर जाऊँगा। ऐसे नहीं जा सकते आप लोग मेरे सामने से।” 

“तो अब क्या?” एक साथ एक्स और वाई ने पूछा। 

ज़ेड ने लम्बी साँस लेते हुए कहा, “मैं आप लोगों से मुँह फेर लेता हूँ। मानो मैंने कभी आप लोगों को देखा ही नहीं। आप चले जायेंगे तो सामान मैं उठा कर स्टोर में वापस रख दूँगा। समझ लीजिये कि आज यहाँ कुछ हुआ ही नहीं और हम लोगों ने एक-दूसरे को मानो देखा ही नहीं,” यह कहते हुए ज़ेड ने नज़रें फिरा लीं। 

एक्स और वाई चोर दरवाज़े से बाहर निकल आये।

उन्होंने पलट कर नहीं देखा लेकिन वो जानते थे कि जो आज उन्होंने देखा है वो जीवन भर नहीं भूलेंगे। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

स्मृति लेख

कहानी

कविता

लघुकथा

बाल साहित्य कविता

सिनेमा चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं