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नानक दुखिया सब संसार

 

शहर की झोपड़पट्टी माने वाले इलाक़े का नाम इंद्रपुरी था। अपने नाम के उलट मुर्गी के दड़बों की तरह बेतरतीब बसी हुई इंद्रपुरी झोपड़पट्टी की एक झोंपड़ी से निब्बर रोज़गार पर जाने के लिये बाहर निकला। दरवाज़े के पास एक लोहे के मज़बूत पाए से बँधे ज़ंजीर का ताला खोलकर उसने रिक्शा निकाला। रिक्शे को उसने झाड़ा-पोंछा, तेल-फुलेल डाला और भगवान का नाम लेकर चल पड़ा। बिस्तर पर पड़ी उसकी पत्नी रधिया उसे लाचारी से जाते हुए देखती रही। उसकी तबियत इतनी ख़राब थी कि उठकर चूल्हा भी न जला सकी थी। सुबह गली के नुक्कड़ पर जाकर निब्बर एक कप चाय और एक डबल रोटी ले आया था। निब्बर ने सिर्फ़ दो घूँट चाय पी औऱ बाक़ी की चाय और डबलरोटी उसे खिला-पिला दी थी। निब्बर को भूखे पेट रिक्शा ले जाते हुए देखकर उसकी पत्नी रधिया का कलेजा मुँह को आ गया मगर मजबूरी जो न कराए। 

बीते कल में निब्बर को एक भी सवारी नसीब नहीं हुई थी और आज का दिन भी निब्बर का रामभरोसे ही था। 

पूरी दोपहरी निब्बर इधर उधर रिक्शा दौड़ाता रहा मगर उसे एक भी सवारी नसीब नहीं हुई। हारकर उसने रिक्शे को सड़क किनारे खड़ा किया और पेड़ के नीचे सुस्ताने लगा। पेड़ की छाँव में ही एक ठेले वाला समोसा बेच रहा था। लू से मौसम दहक रहा था मगर समोसे का आकर्षण ही ऐसा था कि लोगबाग गर्मी को नज़र अंदाज़ करके समोसे खा रहे थे। छन कर निकलते हुए समोसों के लिये लाइन लगी थी। 

सन्नाटे से भरी सड़क के किनारे लगी कुछ इंसानों की लाइन को परम ज्योति ने भी नोटिस किया। उसका दिमाग़ गर्मी और ऑटो वाले की बदतमीज़ी से भन्नाया हुआ था। इस गर्मी में वह माइग्रेशन सर्टिफ़िकेट लेने कॉलेज गई थी। वहाँ पहले ऑफ़िस वालों ने दोपहर तक उसे परेशान किया फिर दो दिन बाद आने को बुलाया। भन्नाई हुई वह बाहर आई तो सीधे उसके घर जाने के लिए कोई ऑटो वाला तैयार नहीं हुआ। तीस रुपये उसके घर का अधिकतम किराया लगता था मगर बमुश्किल साठ रुपये में एक ऑटो वाले ने जाने की हामी भरी। झुलसाती गर्मी और तपती लू में परम ज्योति के पास कोई विकल्प न था। मज़बूरन उसने तय कर लिया और ऑटो वाले की ज़िद मानते हुए किराया भी एडवांस दे लिया। आधे रास्ते में ही ऑटो वाले ने आगे जाने से मना कर दिया। ऑटोवाले ने यह कहते हुए कि “पेट्रोल ख़त्म हो गया है” ऑटो रोक दिया। परम ज्योति के घर के दो किमी पहले ही ऑटो वाले ने उसे उतार दिया। 

उसने बहुत इसरार किया मगर न जाने क्यों ऑटो वाला आगे जाने को राज़ी न हुआ। उसने आधे रास्ते के तीस रुपये भी काट लिए और और तीस रुपये परम ज्योति को लौटाते हुए चलता बना। 

परम ज्योति गर्मी और क्रोध के अतिरेक से उबल गई। वह अंगारों पर लोटती हुई पैदल ही घर की तरफ़ चल दी। थोड़ी दूर चलने के बाद सड़क के किनारे उसे समोसे के ठेले के पास कुछ भीड़ दिखी और वहीं दिखा फटा-उजड़ा निब्बर का रिक्शा। वह रिक्शे के पास पहुँची। उसने रिक्शे की दुर्गति देखी। उसने नज़र दौड़ाई तो रिक्शे वाला कहीं नज़र नहीं आ रहा था। उसके मन में बहुत हिचकिचाहट हुई मगर फिर भी उसने रिक्शे की गद्दी पर हाथ रखा। अचानक समोसे के ठेले के पास लगी भीड़ में से कहीं से निब्बर निकल कर आया और उसके सामने खड़ा हो गया। 

परम ज्योति ने पूछा, “मानसपुरी चलोगे, कितना लोगे?” 

“ज़रूर चलेंगे, जो मन हो दे दीजियेगा,” निब्बर ने कहा। 

परम ज्योति ने ऑटो वाले के लौटाए हुए पैसे हाथ में ही पकड़ रखे थे। उन पैसों को अभी हैंड बैग में नहीं रखा था। उसने झुँझलाते हुए कहा, “तीस रुपये दूँगी। इतने कम नहीं होते। इससे एक पैसा ज़्यादा नहीं, चलना है तो चलो नहीं और कोई रिक्शा देखूँ।” 

“पैसों के कम ज़्यादा होने की बात नहीं है बिटिया। ये पैसे आप मुझे एडवांस दे दीजिए तो कुछ खा लूँ। सुबह से कुछ नहीं खाया। भूख के मारे इतनी गर्मी में ख़ाली पेट रिक्शा खींचा नहीं जाएगा,” निब्बर ने कातर स्वर में कहा। 

परम ज्योति ये सुनकर हैरान हो गई। वो बस एकटक देखती रही निब्बर को। निब्बर जान गया कि एडवांस नहीं मिलेगा। फिर भी उसने रिक्शा परम ज्योति के आगे करते हुए लगा दिया और उसे बैठने का इशारा किया। 

परम ज्योति ने कुछ सोचा और तीस रुपये निब्बर के हाथों पर रखते हुए कहा, “ये लो बाबा, जाओ खा लो मगर ज़रा जल्दी करना।”

“आप तब तक पेड़ की छाँव में खड़ी रहिये। मन करे तो समोसे खा लें या घर के लिये बँधवा लें। मैं बस पाँच मिनट में हाज़िर होता हूँ,” ये कहकर निब्बर दौड़ते हुए गया और पेड़ के पीछे की गली में कहीं ओझल हो गया। 

टाइम बिताने के लिए परम ज्योति समोसे के ठेले की तरफ़ बढ़ गई। उसकी इच्छा तो हुई समोसे खाने की मगर गर्मी देखकर उसने अपना इरादा बदल दिया। उसने छह समोसे पैक करने के लिए ऑर्डर दिया और इंतज़ार करने लगी। समोसे का पैकेट जब तक उसके हाथ में आया और भुगतान करके जब वह रिक्शे की तरफ़ मुड़ी तो उसने देखा कि निब्बर रिक्शे की गद्दी पर तैयार बैठा था और उसे इशारे से बुला रहा था। 

वह जाकर रिक्शे पर बैठ गई और रिक्शा उसके घर की तरफ़ बढ़ चला। परम ज्योति ने पूछा, “आपने समोसे नहीं खाये, क्या खाने चले गए थे।” 

“गली के दूसरे मोड़ पर एक और भी ठेला लगता है, वहीं गया था। वहीं पंद्रह रुपये में रोटी-सब्ज़ी खाई और घरवाली के लिए बँधवा भी लिया वह भी भूखी होगी। समोसा खाकर मेहनत मज़दूरी नहीं हो पाती,” निब्बर ने धीमे से कहा। 

थोड़ी देर तक रिक्शा चलता रहा तो फिर परम ज्योति ने पूछा, “आपका रिक्शा इतनी बुरी हालत में क्यों है? इसको सही क्यों नहीं करवाते?” 

“क्या करूँ बिटिया, मेरी माली हालत इतनी ख़राब है कि रिक्शा बनवाने के पैसे ही नहीं हैं। रिक्शे की हालत देखकर कोई इस पर बैठता नहीं है। वैसे भी आजकल सब ऑटो में बैठते हैं। पैडल वाले रिक्शे को कौन पूछता है और इस बदहाल रिक्शे को तो कोई भूले-भटके भी नहीं पूछता है,” ये कहकर निब्बर चुप हो गया। 

परम ज्योति ने रिक्शे के हुड के अंदर से चिलचिलाती धूप में वृद्ध निब्बर को रिक्शा खींचते हुए ग़ौर से बड़ी देर तक पीछे से देखा तो उसने पाया कि उसका क्रोध और झुँझलाहट अब ख़त्म हो चुकी थी और उसे अब लू के थपेड़ों से पहले जितनी गर्मी भी नहीं लग रही थी। 

परम ज्योति ने पाया कि पसीने से उसका शरीर तो तर-ब-तर तो है मगर उसकी आँखें भी भीग गई हैं। उसने अपने आँखों से छलक आये आँसुओं को पोंछा और बुदबुदाई “नानक दुखिया सब संसार।” 

रिक्शा अपनी मंज़िल की तरफ़ बढ़ता जा रहा था और परम ज्योति को अब घर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं थी। 

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