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कभी-कभार 

 

कभी-कभार तुम्हारा यूँ ही मिल जाना, 
आँगन में उतरे हुए 
धूप के टुकड़े जैसा होता है, 
जिससे मिलकर 
गीली मिट्टी भी सौंधी हो जाती है।
  
कभी-कभार तुम्हारा मिलना, 
चूल्हे की उस आख़िरी रोटी जैसा 
बेहद ज़रूरी हो जाता है, 
जिससे भरता है 
उस सबसे आख़िरी रोटी को खाने वाली का पेट, 
और उसे उस आख़िरी रोटी के बनाने का संतोष।
 
कभी-कभार तुम्हारा मिलना 
उस अल्हड़ प्रेमी के चेहरे पर 
आई हुई मुस्कान की तरह लगता है, 
जो ये जानता है कि 
जिस लड़की की वजह से ये मुस्कान है, 
उसके पास नौकरी न होने की वजह से वही लड़की, 
अगले साल कहीं और ब्याह दी जायेगी।
 
कभी-कभार तुम्हारा मिलना 
दो चोटी गूँथ कर साइकिल से
दूर शहर पढ़ने जाने वाली 
उन देहाती लड़कियों के सपनों जैसा होता है, 
जो जानती हैं कि 
उनके सपनों की कोई उम्र नहीं 
मगर बदलाव लाने की ज़िद पाले वो लड़कियाँ, 
पैडल मारती रहती हैं 
ज़िन्दगी और साइकिल पर भी। 
 
कभी-कभार तुम्हारा मिलना 
खलिहान से उठे 
उस अनाज की आख़िरी खेप
जैसा होता है, 
जिसे देखकर किसान की आँखों 
में आती है चमक, 
कि अब उसके घर में सभी लोग 
पूरे साल आधे पेट नहीं सोएँगे, 
और थोड़े से ही सही मगर 
बरसों से पाले गए कुछ सपने, 
भी शायद सच हो जाएँगे।
 
पर तुम कभी-कभार ही
क्यों मिलती हो मुझे, 
क्या ऐसा नहीं हो सकता है 
कि तुम मुझे अक़्सर ही
मिला करो, 
जिससे आँगन की गीली मिट्टी, 
चूल्हे की आख़िरी रोटी, 
अल्हड़ प्रेमी, देहाती लड़की और 
खलिहान में किसान के 
सपने सच हो जाया करें।

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