सैंया भये कोतवाल
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी दिलीप कुमार1 May 2021 (अंक: 180, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
"हर आम-ओ-ख़ास को इत्तला दी जाती है कि फ़ेसबुक और व्हाट्सएप्प ग्रुप की महारानी हवाख़ोरी के लिये नैनीताल गयी हैं, उनकी रियाया जो कि इल्म की भूखी है उसकी जेहनी ख़ुराक के लिए जनाब कालीन कर्मा और मोहतरमा ओमनी शर्मा को वज़ीर घोषित किया जाता है, मोहतरमा ओमनी शर्मा ख़रीद-बिक्री का हिसाब-किताब देखेंगी और इस सल्तनत के हर कलेक्शन की रपट महारानी को रोज़ शाम को मोबाइल से भेज दिया करेंगी।"
एक तालिब-ए-इल्म ने सवाल किया–
"तो कालीन भैया क्या करेंगे ख़ाली इल्म का कट्टा बेचेंगे मिर्ज़ापुर वाले कालीन भैया की तरह।"
मुनादी वाला ज़ोर से चीख़ा–
"चुप रहो, ये महारानी की शान में गुस्ताख़ी है। फ़ेसबुकिया सल्तनत में ऐसे सवालों की सज़ा सिर्फ़ ब्लॉक है। लेकिन हमारी महारानी लोगों के ख़ून-पसीने को चूसकर, नहीं-नहीं अपना ख़ून-पसीना बहाकर महारानी बनी हैं, इसलिये वो रियाया को मुआफ़ी दे देती हैं। ए कमज़र्फ़ मुनादी पूरी सुन! कालीन कर्मा साहब मौक़े पर सदर-ए-रियासत होंगे। कालीन कर्मा साहब ने अपनी बीवी को मायके भेज दिया है और बच्चे की ऑन लाइन क्लास वहीं से होगी। हमारी महारानी उनकी ख़िदमत से बेहद ख़ुश हैं, महफ़िलों में दरी बिछाने से लेकर चाय-पानी तक की अपनी जेब से ख़िदमत की है, इसलिये महारानी आज उनको ये मुक़ाम अता फ़रमा रही हैं।"
रियाया से किसी ने अपने दिल का दर्द बयां किया–
"अजब दुनिया है शायर यहाँ पर सर उठाते हैं
जो शायर हैं वो महफ़िलों में दरी चादर उठाते हैं।"
मुनादी करने वाला चीख़ा–
"चुप कर नामाकूल, महारानी जी कहती हैं कि हमने किसी शायर से दरी-चादर नहीं उठवाई, अलबत्ता दरी-चादर उठाने वालों को हमने शायर बना दिया। कुलीन कर्मा एडहॉक पर सीढ़ियाँ उठाते थे सरकारी महकमे की, अब देखो बड़े-बड़े तमगे उठाएँगे। उन्हें ये अख़्तियार होगा कि वो बड़े से बड़े अदीब को फ़ेसबुक ग्रुप से निकाल सकें, उन्हें ये भी अख़्तियार होगा कि वो जलीलतरीन क़िस्सों पर तबादला-ए-ख़्याल करवा सकेंगे फ़ेसबुक के ओपन फ़ोरम पर। जो ख़्याल क़िस्से के ख़िलाफ़ होंगे उनको नेस्तानाबूद कर दिया जायेगा और जो ख़्याल क़िस्से के हक़ में होंगे, उस जलीलतरीन क़िस्से के बेहतरीन होने की तस्लीम करेंगे, उनको ही शाया होने दिया जायेगा।"
रियाया में फिर एक आवाजे बुलन्द आयी–
"तुम्हारी महफ़िल का तो हर क़िस्सा घटिया-ए-अज़ीम है। फिर वो ख़ुशनसीब क़िस्सा किस नेकबख़्त का होगा उसे कौन तय करेगा कालीन कर्मा या और कोई।"
मुनादी वाला फिर चीख़ा–
"ए कमज़र्फ़, बद दिमाग़, तनखैय्या वज़ीरों को हुकूमतों के रोज़मर्रा के कामों के लिये रखा जाता है, बादशाही फ़ैसले तो बेगम साहिबा, मतलब महारानी ही लिया करेंगी, फ़ैसले रियाया को और वज़ीरों को इत्तला कर दिए जाएँगे। किस जलीलतरीन क़िस्से को चुनकर बेहतरीन का ख़िताब देना है, ये बादशाही फ़ैसले नैनीताल से ही आएँगे।"
कोई अहमक रियाया फिर पूछ ही बैठा–
"तो कोई जिस बदतरीन क़िस्से को ख़िताब देकर बेहतरीन किया जायेगा, उसे रिसालों में जगह मिलेगी या नहीं। और एक रज़ील फ़रमा रहा था कि उस बदतरीन क़िस्से पर मुकम्मल किताब शाया होगी या नहीं, और होगी तो मदद-ए-माश का रेट बताएँ।"
मुनादी वाला और मोहतरमा वज़ीर-ए-ख़ज़ाना दोनों तिलमिला उठे। शाही फ़रमान पर कुछ बोलने ही वाले थे कि किसी इल्मी रियाया ने एक शेर पढ़ा–
"ख़ुदा ने हुस्न नादानों को
बख्शा ज़र रज़ीलों को
अक़्लमंदों को रोटी ख़ुश्क
औ हलुआ वखीलों को।"
दोनों वज़ीरों और मुनादी करने वालों के सर के ऊपर से बात निकल गयी। उन्हें याद आया कि वो शायरी के तुकबंद तो हैं, चुनाँचे कि उर्दू उन्होंने सीखी नहीं है।
ये तो मसला-ए-फ़ज़ीहत है सो उन्होंने बेगम-ए-इल्म को नैनीताल फोन लगाया। बेगम साहिबा को याद आया कि उनके पास उर्दू के आलिम और संस्कृत के शास्त्री की डिग्री तो है मगर ये ज़ुबानें उन्होंने सीखी नहीं है, उनके फ़ेसबुक के हामियों की मेहरबानी है कि ये कि संस्कृत की डिग्री उन्हें दिल्ली की बुटीक वाली ख़ातून ने बनवा दी थी दोस्ती का नज़राना देकर और संस्कृत के शास्त्री डिग्री का बंदोबस्त उनके जयपुर के एक और दरी-चादर उठाने वाले तुकबंद शायर ने कर दिया था। उन्हीं काग़ज़ी नज़रानों के एवज़ में आज उनको दो वज़ीर मिले।
लेकिन रियाया, हुक्मरानों से ज़्यादा होशियार निकली, उसमें किसी ने ऐसा शेर पढ़ दिया कि हुक्मरान तिलमिला उठे फ़ेसबुक ग्रुप के।
ताकीद की गयी कि बादशाही मसले यूँ सबके सामने नुमायाँ नहीं किये जा सकते।
नतीजतन एक और मुनादी की गई–
"जिस भी मोहतरमा या हज़रात को बेगम के बादशाही फ़ैसलों पर नुक्ता-चीनी करनी हो वो व्हाट्सअप ग्रुप में शामिल हो जाएँ। बेगम की बादशाहीयत पर यूँ सरेआम सवाल उठाना अदीब की नहीं अदब की गुस्ताख़ी है।"
"सवाल गुस्ताख़ी का नहीं सवाल रेट का है, कितने लगेंगे, जितने पिछली बार लगे थे क्या उतने ही लगेंगे?" अदब की रियाया में घुसे एक मामूली शख़्स ने पूछा।
मुनादी वाले के साथ-साथ दोनों वज़ीर चीख़े–
"ए नामाकूल ये नाफ़रमानी है, बेगम साहिबा किसी से पैसे नहीं लेतीं, कोई नहीं कह सकता कि उन्होंने किसी से पैसे लिये हों कभी, अलबत्ता ये तो उनके फ़ेसबुकिया रियाया की प्यार मोहब्बत है जिसकी वो मेहमान-नवाज़ी क़ुबूल फ़रमाती रही हैं। कपड़े, पापड़, अचार, और तमाम ज़नाना सामान उन्हें चढ़ावे में मिलते हैं, वैसे तो वो बहुत मना करती हैं मगर लोग हैं कि मानते नहीं। अब ये तो उनकी फ़ेसबुक पर सल्तनत है कि लोग उन पर प्यार और समान लुटाते हैं।"
"तो ये नैनीताल का सफ़र अपने पैसों से हो रहा है कि ये भी किसी मेहमान-नवाज़ का प्यार है?"
रियाया के किसी चोट खाये तुकबंद शायर ने पूछा।
मुनादी वाला, मोहतरम और मोहतरमा वज़ीर तिलमिलाए। वो कुछ कहने वाले थे तब तक एक और चोट खायी बन्दी चीख़ी–
"बेगम साहिबा से कहो, नैनीताल बाद में जाएँ, पहले गुज़िश्ता बरस दिल्ली सफ़र की जो देनदारियाँ हैं वो निपटा दें, वो मैंने ज़ाती कर्ज़ा दिया था, उन्होंने तस्लीम भी किया था , और अब उसे वो ज़बरदस्ती मेरी मेहमान-नवाज़ी के तले दबाना चाहती हैं। माँग-माँग कर थक गए मगर बेगम हैं कि यही फ़रमाती हैं कि वो पैसों के बदले मुझे बड़ा शायर बना देंगी। जब इन्हें एक अदने से शेर का तर्जुमा नहीं मालूम तो मुझे क्या ख़ाक शायर बनाएँगी।
ये सुनिए मोहतरम–
"शायरी चारा समझकर वैसाखनन्दन चरने लगे
शाइरी आये नहीं, शायरी करने लगे"
ये शेर पढ़कर उसने फरियाद की, "बेगम साहिबा मेरे पैसे दो।"
उसके ऐसा कहते ही मुनादी करने वाले ने मुनादी छोड़कर उस अदनी सी रियाया पर छलाँग लगा दी पिटाई करने के लिये, बेगम साहिबा की शान में गुस्ताख़ी होने पे मोहतरम कालीन कर्मा ने सचमुच कट्टा निकाल लिया, दूसरी मोहतरमा वज़ीर ने अपनी सैंडिल निकालकर वार करना शुरू कर दिया।
इधर ये जूतम-पैजार चल रही थी; उसी के पीछे एक बारात निकल रही थी जिसमें गाना बज रहा था–
"सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का।"
ये सब देखकर मैंने हुकूमत और रियाया के झगड़े से खिसक कर बारात का लुत्फ़ लेना ही उचित समझा।
ऊर्दू शब्दों के अर्थ जानने के लिए देखें – रेख़्ता शब्दकोश
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डॉ पदमावती 2021/05/02 11:46 AM
बधाई आपको लेकिन बता दें आपका व्यंग्य आधा ही समझ पाये! कभी हिन्दी भी लिखिए । बहुत बहुत बधाई