रिश्ते
कथा साहित्य | कहानी दिलीप कुमार15 Aug 2025 (अंक: 282, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
आज दो दशक बाद वह इस क़ब्रिस्तान में आया था। ऐसा नहीं था कि पिछले दो दशक में वह किसी को मिट्टी देने नहीं गया पर दो दशक में बहुत कुछ बदल गया। उसका घर, उसका रोज़गार, उसका सामाजिक स्टेटस। पुराना क़ब्रिस्तान अब ग़रीबों के महल्ले के मुर्दों का पनाहगाह था। अब वह ग़रीबों के महल्ले में नहीं रहता था और न ही किसी ग़रीब से उसका ज़ाती राब्ता रहा था। जब ग़रीबों से राब्ता नहीं तो ग़रीबों के क़ब्रिस्तान में जाने का सवाल ही नहीं पैदा होता था।
पर आज उसे ज़रूरत खींच लाई थी। उसने वक़्त का अंदाज़ा लगाया कि अँधेरा हो चुका है, अब सब जा चुके होंगे। ये सोचकर वह क़ब्रिस्तान के पास पहुँचा।
गेट से अंदर घुसा तो एक गेट से लगा एक छोटा सा कमरा और बरामदा था। लाइट न होने की वजह से बरामदे में नीम अँधेरा था। वह अंदर तो आ गया था मगर समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? उसे न तो इस्लामिक रीति रिवाज़ की रवायतें पता थीं और न ही सलीक़ा। आगे क्या करना है? ऐसा कुछ सोचने वाला था कि सामने से अली ज़रार आता दिखा।
अली ज़रार को आते देख उसे थोड़ी घबराहट हुई। वह यहाँ कोई बवाल या बखेड़ा नहीं चाहता था। उसे थोड़ी घबराहट हुई सो वह अँधेरे में हो लिया कि अली ज़रार चला जाये तो वह सोचे कि आगे क्या करना है?
वह अँधेरे में दुबका रहा और अली ज़रार चला गया। जब उसे इत्मीनान हो गया कि अली ज़रार दूर निकल गया होगा। तो वह उजाले में आकर सोचने लगा कि अब क्या करना है?
“यहाँ कैसे आप? बड़े आदमी और कट्टर हिन्दू . . . ग़रीब मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में?” पीछे से एक आवाज़ आई।
उसने घूमकर देखा तो अली ज़रार खड़ा था।
“शबीहा को मिट्टी देने आए हैं? मरने से पहले भी नहीं आये और मरने के बाद भी बड़ी देर कर दी आपने आते-आते,” अली ज़रार ने तंज़ भरे स्वर में कहा।
“नहीं वो मैं, वो मैं ज़रा इधर से . . .” वह बोलते हुए गड़बड़ा गया।
“उसी से मिलने आये हैं ना, वरना रात के अँधेरे में इन ग़रीबों के क़ब्रिस्तान में आना आपके स्टैंडर्ड के ख़िलाफ़ है। शबीहा आपका ज़ाती मामला थी इसीलिए आप आये हैं। वरना यूँ छुपकर चोरों की तरह नहीं आते। अव्वल तो किसी मुसलमान की मौत पर आपको कोई ग़म नहीं होता अलबत्ता ख़ुशी होती है। लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए अगर मातम पुर्सी करनी ज़रूरी है तो आपका ड्राइवर फूल लेकर आता, आप नहीं। लेकिन शबीहा—उसकी तो बात ही और थी,” अली ज़रार ने फिर तंज़ भरे लहजे में कहा।
“तुम ग़लत समझ रहे हो, मेरा मतलब है कि आपको ग़लतफ़हमी हुई है। मैं तो यहाँ ऐसे ही इंसानियत के नाते . . .” ये कहते हुए उसके मुँह से आगे के बोल ही न फूटे।
उसे कुछ और नहीं सूझा तो उसने सर झुका लिया।
थोड़ी देर यूँ ही बीत गई।
अली ज़रार ने उसका हाथ पकड़ा और आगे आगे चल पड़ा। क़ब्रिस्तान के आख़िरी छोर पर ले जाकर एक क़ब्र के सामने उसने थोड़ी सी मिट्टी उठाई और उसके हाथों में रख दी।
अली ज़रार ने हाथ उठाकर फ़ातिहा पढ़ना शुरू कर दिया। उसने अली ज़रार की तरह हाथ तो उठा तो लिए मगर वो कौन सी चीज़ पढ़ रहा था जब ये जान नहीं पाया तो क़ब्र के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।
फ़ातिहा ख़त्म हुआ तो अली ज़रार ने इशारा किया। उसके इशारा करने पर उसने हाथ में ली हुई मिट्टी शबीहा की क़ब्र पर चढ़ा दी और उसे अपने तरीक़े से अंतिम प्रणाम करके मुड़ गया।
इस बार वह तेज़ क़दमों से आगे चल रहा था। क्योंकि वह नहीं चाहता था कि अली ज़रार ये देख सके कि उसकी पत्नी की मौत पर किसी ग़ैर की आँखों से आँसू बह रहे थे।
गेट पर पहुँचने के बाद उसने अली ज़रार को अलविदा कहने की सोची। अब तक उसके आँसू सूख चुके थे। घूम कर उसने अली ज़रार से हाथ जोड़कर कुछ कहना चाहा तो अली ज़रार ने उसका हाथ पकड़ लिया। उसकी आँखें आँसुओं से डबडबा गईं वह धीरे से बोला, “आपने मेरी हँसती खेलती ज़िन्दगी तबाह कर दी राय साहब। आपने सबीहा को अपने इश्क़ के जाल में इसलिये फाँसा कि आप मुसलमानों से बदला ले सकें। आपके घर की लड़की को कभी कोई मुसलमान भगा ले गया था तो उस बात का बदला लेने के लिए आपको मेरा ही घर और मेरी ही बीवी मिली थी। किसका बदला किस से लिया आपने? जानते हैं वह कैंसर से नहीं मरी बल्कि आपके किसी छल की वजह से वह जीना नहीं चाहती थी।”
उसने मन ही मन गुणा-भाग किया और इस नतीजे पर पहुँचा कि इस वक़्त अली ज़रार को दी गई किसी भी क़िस्म की सफ़ाई उसके ख़िलाफ़ ही जाएगी।
उसने धीरे से अली ज़रार से अपना हाथ छुड़ा लिया। उसने अली ज़रार कंधे पर सांत्वना देने के लिए हाथ रखा और फिर उससे विदा लेकर चल पड़ा।
अपनी गाड़ी में आकर बैठने के बाद वह जी भर के रोया। आँखें बंद कर लीं तो ऐसा लगा कि मानो शबीहा उसके सीने के बालों को सहलाते हुए वही बात बोली जिस बात पर उसे काफी एतराज़ हुआ करता था।
शबीहा कहती थी, “राय ये बताओ यार, मुसलमानों से इतनी नफ़रत रखने के बावजूद तुम मुझसे इतनी मोहब्बत कर कैसे लेते हो?”
उसने पीछे मुड़कर देखा तो अली ज़रार उसकी गाड़ी के पीछे दूर खड़ा उसे असमंजस से देख रहा था।
अब वह यह बात शबीहा को भी नहीं समझा पाया था तो अली ज़रार को कैसे समझाता कि वह किसी का बदला नहीं ले रहा था बल्कि वह तो ख़ुद बदल चुका था।
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