ब्रांड न्यू
कथा साहित्य | लघुकथा दिलीप कुमार1 Jul 2021 (अंक: 184, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
उसने दिहाड़ी के मज़दूर रखे थे, कुल जमा तीन थे, एक रेकी करता था, दो काम करते थे। इसके एवज़ में शाम को तीनों को दिहाड़ी मिला करती थी। शाम को कलेक्शन जमा होता था। नग गिने जाते थे, साबुत पीस आगे भेजे जाते थे, उन्हें धो कर, प्रेस करके, फिर नई मोहर लगती थी, और फिर आगे भेजे जाते थे।
पहले ने उसे फोन किया –
"साहब, दो नग साबुत हैं। किसी को भेजकर निकलवा लो। एकदम कड़क हैं। किसी की नज़र नहीं पड़ी।"
"ठीक है, तुम वहीं रहो, जिस तरह बीमारी फैली है, दो-तीन तो और वहाँ पहुँच ही जायेंगे। दूसरे को भेज रहा हूँ," उसने आश्वासन दिया।
"दूसरे को मत भेजो, साहब। उसे यहाँ सब पहचान गए हैं कुछ-कुछ। बवाल हो सकता है, हम सब पकड़े भी जा सकते हैं। तीसरे वाले को भेज दीजिये," उधर से आवाज़ आयी।
"तीसरा, दूसरी साइट पर गया है। वहाँ चार-पांच आने की उम्मीद है," शंका का निस्तारण किया गया।
"तो मैं अब क्या करूँ?" पहले वाले ने पूछा।
"तुम निकलो वहाँ से, दूसरी जगह जाकर रेकी करो, और फिर शाम को लॉन्ड्री चले जाना। सारे साबुत पीस ले आना देखभाल कर। और हाँ कुछ पीस पर मोहर लगी रह जाती है। उसे लौटा देना और कहना कि ठीक से पेट्रोल से धोकर दें," साहब ने हुक्म दिया।
"तो यहाँ वाला काम कैसे होगा, कौन करेगा? और मुझे और कोई काम तो नहीं है?"पहले वाले ने पूछा।
"वहाँ का काम मैं करूँगा, वैसे भी मुझे कोई पहचानता नहीं है उस जगह। सो काम आसानी से हो जाने की उम्मीद है। और एक बात याद रखना, लौटते वक़्त नेशनल वाले की दुकान से नई मोहर ले आना। जब माल बुराक़ हो तो मोहर भी तो उस पर एकदम नई लगनी चाहिये। कल सुबह जितने पीस मोहर लग कर बिक्री लायक़ रेडी हो जाएँ उन्हें लाल साहब की दुकान पर पहुँचा देना,” नए निर्देश जारी करते हुए वो बोला।
"साहब, अगर आज हिसाब हो जाता तो चार पैसे मिल जाते, कई दिनों की मज़दूरी बक़ाया है, घर चलाना मुश्किल हो रहा है। हम दिहाड़ी मज़दूर हैं साहब, हमको हिसाब टाइम से दे दिया करें," पहला वाला गिड़गिड़ाया।
"सबको हिसाब टाइम से चाहिये, लेकिन मुझे भी आगे से हिसाब मिलना चाहिये ना। आज मैं ख़ुद लाल साहब की दुकान पर जाऊँगा हिसाब हो जाएगा तो तुम तीनों की मज़दूरी दे दूँगा और लॉन्ड्री का भी हिसाब कर दूँगा," एक और आश्वासन दिया गया।
"जी साहब, जैसा हुक्म आपका," फोन पर ये जवाब देने के बाद पहला वाला दूसरी साइट पर चल पड़ा। उधर साहब, मोबाइल रखने के बाद पहले वाले की साइट पर चल पड़े।
साहब के तीनों मज़दूर अंत्येष्टि स्थल से कफ़न चुराते थे, साहब उन्हें लॉन्ड्री में धुलवाकर, पुरानी मोहर मिटवा देते थे। फिर उसी कफ़न पर नई मोहर लगाकर उसी दुकानदार को बेच देते थे। दुकानदार, पुराने कफ़न को एकदम "ब्रांड न्यू" बताकर किसी नए शव के लिये बेच देता था। ये ख़रीद-फ़रोख़्त ज़िंदगी के साथ भी थी और ज़िंदगी के बाद भी।
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