अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ख़ुदा और विसाले सनम

 

वो लंबे-लंबे कश खींच रहा था मगर उसकी खाँसी बदस्तूर जारी थी। सिगरेट न पीने की उसकी आदत सिगरेट से ग़म ग़लत करने की उसकी ख़्वाहिश पर भारी पड़ रही थी। खाँसते-खाँसते हुए लार उसके चेहरे पर लिपट गयी और आँखें लाल हो गयीं। 

उसके साथ का चिलमची डर गया कि अगर किसी ने उन दोनों को साथ देख लिया तो चिलमची पर आफ़त आ जायेगी। शाम का धुँधलका बढ़ रहा था। सामने की धीरज हाइट्स की आठ मंज़िला बिल्डिंग की लाइटें जगमगाने लगी थीं। तभी अज़ान हुई। उस जगह पर बज रहे गानों के स्वर धीमें पड़ गये। ईसा की नमाज़ का वक़्त हुआ तो दुकान गुज्जू ने कहा, “कसूरी भाई, नमाज़ का वक़्त हो गया। नशा-पत्ती छोड़ो। अल्लाह की बारगाह में जाओ शायद कोई राह निकले। मस्जिदों में इबादत से वो तमाम मुक़द्दमे हल हो जाते हैं जिन्हें दुनियावी अदालतें ठीक नहीं कर पाती।” 

सहानुभूति के फाहे मिले तो मन के घावों की टीस कुछ कम हुई। कसूरी ने हाथ मुँह धोया, ख़ुद को पाक साफ़ किया और इस बात की तस्दीक़ की, कि उस पर कोई नशा तारी तो नहीं है। 

नशा हुआ भले ही न था मगर नशा किया तो था कसूरी ने भले ही ग़म ग़लत करने की नीयत से। उसकी अन्तरात्मा ने उसे धिक्कारा कि वो पाक मुसलमान नहीं है फ़िल-वक़्त नमाज़ के लिये . . . पाक मुसलमान, मुसलमान, मुसलमान यही तो वो लफ़्ज़ था जिसने इस वक़्त उसके किरदार को मथ कर रख दिया था। 

उसका सिर चकराने लगा। उस मुस्लिम बहुल बस्ती बेहरामबाग़ पाड़ा में वो अज़ान के वक़्त सड़क पर दिखकर ख़ुद की किरकिरी नहीं कराना चाहता था। सो वो उठकर दुकान के पिछले हिस्से में चला आया। वहीं शीशे के पार उसने देखा कि तमाम पैर मस्जिद की तरफ़ मुड़ रहे थे। 

बेहरामबाग़ की मस्जिद में नमाज़ियों के लिये जगह कम पड़ पाया करती थी सो तमाम लोग मस्जिद के सामने वाली सड़क पर नमाज़ अता किया करते थे। 

बेहरामबाग़ की घनी बस्ती, बहुत सारे मुसलमानों के घर, घाटी, मराठी, गुज्जू, भैय्या, बिहारी हर क़िस्म के मुसलमान। लेकिन सबके मसले जुदा-जुदा। अस्सलाम वालेकुम के अलावा उनमें कोई चीज़ साझी न थी। साझा था तो पहले अपना फ़ायदा देखना फिर अपना प्रांतवाद। 

दिलचस्प है मुम्बई शहर यहाँ बाहर से आने वाले लोग इस शहर की सलाहियतों के तो क़ायल हैं मगर दिन भर बातें अपने मुलुक (गाँव) की किया करते हैं। कसूरी हारकर अपने घर पहुँचा तो उसकी बड़ी बेटी राबिया ने दरवाज़ा खोला और दरवाज़ा खोलते ही बेसाख़्ता बोली, “अब्बू, आप इस वक़्त यहाँ? नमाज़ पढ़ने नहीं गये?” फिर अपने ही शब्दों को चबाकर बोली, “अब तो बहुत देर . . .” तब तक वहाँ रेशम आ गयी। दोनों ने एक-दूसरे को देखा कसूरी ने रेशम को प्यार और हसरत भरी नज़रों से और रेशम ने कसूरी को क़हर भरी नज़रों से। 

“जाओ यहाँ से,” ये कहते हुए रेशम अंदर चली गयी और उसने अंदर के कमरे के दरवाज़े को भड़ाक से बंद करके चिटकनी लगा दी। पस्ती के आलम में थके क़दमों से कसूरी एक बावर्चीख़ाने पर चला गया। वो वहाँ खाने बैठा तो उसे लगा सब उसी को घूर रहे हैं। 

बमुश्किल उसने दो निवाले हलक़ से नीचे उतारे और वहाँ से चल पड़ा। अपने घर से दो गली छोड़कर उसकी एक और आठ बाई आठ की खोली थी जिसमें वो जाकर अकेले लेटा। वो लेटा तो उसकी आँखें नम थीं और उसका अतीत सिनेमा के फ़्लैशबैक की तरह उसके सामने आ गया। 

याद आया उसे वो गोरखपुर का अपना गुज़रा वक़्त, सुंदर कसा हुआ शरीर, दूधिया गोरा रंग, घुँघराले बाल लोग कहते थे और वो ख़ुद मानता था कि वो अभिनेता शशि कपूर जैसा दिखता था। 

गोरखपुर शहर से कुछ दूरी पर स्थित बघनी गाँव शुद्ध और उच्च कुलस्थ ब्राह्मणों का था। दरिद्र मगर इज़्ज़तदार परिवार था उसका। तब उसका नाम शेष शिरोमणि दूबे हुआ करता था। उसके कुल के लोग ख़ुद को इतना श्रेष्ठ समझते थे कि वे अपने नाम के आगे शिरोमणि लगाते थे उनकी शुद्ध आचरण की मिसालें दी जाती थीं। 

पुजारी पिता के देहांत के बाद शेष शिरोमणि दूबे ने अपनी तीन बीघे की खेती, पुजारी की गद्दी और अपनी बूढ़ी माँ चचेरे भाइयों की तका करके बम्बई की राह ली। 

बम्बई तब भी इतनी ही दिल-फ़रेब थी जितनी आज दिलकश है। ऐसे सुंदर चमचमाते चेहरे तो बम्बई की गली-गली हर नुक्कड़ हर चौराहे पर थे। कुछ महीनों में ही शेष शिरोमणि दूबे की जमा-पूँजी स्वाहा हो गयी। 

हीरो बनना तो बड़ी दूर की बात एकस्ट्रा तक का भी रोल मिलना नसीब नहीं हुआ। एकस्ट्रा का रोल करने के लिये उसकी यूनियन से कार्ड बनवाना पड़ता था और कार्ड बनवाने के लिये जिस पैसों की दरकार थी वो शिरोमणि के पास नहीं थे। 

पहले नाकामी मिली फिर भूख से अंतड़ियाँ ऐंठी और उसने घर वापस होने की सोची। मगर ऐसे कैसे हो जाती वापसी। यही तो मुम्बई की अनूठी बात थी यहाँ हर कामयाबी के पीछे क़िस्से हैं संघर्षों के अनथक दास्तानों के। 

यहाँ नाकामी जितनी बड़ी, लोग उसको, उतनी ही बड़ी कामयाबी की दिल-फ़रेब हसरतें पालने को ताकीद करते हैं। उन्हीं दिनों, एक छोटे से ढाबे पर उधारी बढ़ जाने के कारण गुल्लक सेठ ने शिरोमणि को धक्के देकर ढाबे से बाहर भगा दिया था। 

भूख, पस्ती, नाकामी और बेबसी से परेशान था शिरोमणि। उसने तजबीज से पता लगाया कि दोपहर में गल्ले पर रेशम बैठा करती थी। रेशम एक बेपनाह कश्मीरी हुस्न जो कि मुम्बई की इस गंदी बस्ती में भी अपने शबाब पर था। 

रेशम के पुरखे कश्मीरी के हुजां घाटी के थे जो दुनिया में सबसे ख़ूबसूरत लोगों के पैदाइश की जगह मानी जाती थी; अब वो हिस्सा पाकिस्तानी कश्मीरी में है मगर ग़मे रोज़गार ने फ़िल-वक़्त गुल्लक सेठ को मुम्बई के जोगेश्वरी उपनगर के बेहराम बाग़ पाड़ा में पनाह दी थी। 

फिर एक दिन जब भूखा और बेबस शिरोमणि रेशम के सामने गिड़गिड़ाया कि उसे वो अपने ढाबे पर कुछ दिन उधार भोजन दे दे तो वो सुंदर स्त्री द्रवित हो उठी। बाप की ताकीद उसे याद थी सो अपने उधार भोजन देना तो मना कर दिया मगर उधार पैसे देना ज़रूर क़ुबूल कर लिया। 

वो मुसलसल शिरोमणि को उधार देती रही। शिरोमणि संघर्ष झेल चुका था काफ़ी कुछ जान भी गया था। पेट भरा तो उसका आत्मविश्वास लबरेज़ हो गया उसने फिर से प्रयास करने शुरू कर दिए। 

टेलीविज़न उद्योग उन दिनों अपने पैर फैला रहा था घर-घर सीरियल आ रहे थे। ये इक्कीसवीं सदी और किक्रेट में सौरभ गांगुली की कप्तानी के शुरूआती साल थे। शिरोमणि को तमाम टीवी धारावाहिकों में एक-आध दिन का काम मिलने लगा। जोगेश्वरी का बेहरामबाग़ पाड़ा अब शिरोमणि के लिये तीर्थ था वहीं तमाम फ़िल्म और टीवी प्रोडक्शन कम्पनियों के दफ़्तर थे। 

सुबह शाम वो गुल्लक सेठ के होटल पर अपना पेट भरता और श्री जी होटल पर दिन-रात ऑडिशन देता रहता। शिरोमणि अब अपने ख़र्चे आसानी से निकाल लेता था। सिनेमा एक ऐसी फ़ंतासी है जो सबको अपनी तरफ़ खींचती है इस मोह माया से रेशम भी बच न सकी। स्त्री जिससे सहानभूति रखती है अमूमन प्रेम भी उसी से करती है। रेशम को बीते हुए कल का भुखमरा शिरोमणि, आने वाले कल का हीरो नज़र आ रहा था। उसे सहानभूति हुई, सहानभूति से संवेदना, संवेदना से आकर्षण और आकर्षण प्रेम में बदल गया। 

मुम्बई में अब चमत्कारिक प्रेम नहीं होते जहाँ कोई किसी को समग्रता से चाहे, दोनों के समीकरण थे और दोनों को एक दूसरे में उम्मीदें नज़र आ रहीं थीं। एक-एक दिन के बंधुआ मज़दूर की तरह काम से उकताकर शिरोमणि अब अपना पोर्टफ़ोलियो बनवाकर फ़िल्मों के लिये प्रयास करना चाहता था। फ़िल्मों में काम पाने के प्रयास के दौरान वो चाहता था कि न उसे रोज़मर्रा के ख़र्चों की चिन्ता हो और न छोटे-मोटे रोल करने पड़ें। इसके लिये गुल्लक सेठ का ढाबा और उसकी दो तल्ला खोली शिरोमणि के लिये वरदान साबित हो सकती थी। 

इसके अलावा रेशम का बेपनाह हुस्न भी उसे चैन से जीने नहीं देता था। मगर रेशम तो मुसलमान है मांस-मछली सब खाती है और वे ठहरे ठेठ पंडित। ये और बात थी कि अब वो जनेऊ और चोटी वाले पंडित नहीं थे मगर उनके मन में कहीं न कहीं ये बात ज़रूर थी कि वो एक पुजारी का अंश हैं। वाह रे बंबई नगरिया कहते हैं यहाँ हर सपने की एक क़ीमत होती है सो वो भी क़ीमत चुकायेंगे। उन्होंने अपने रक्त में पैवस्त हिन्दुत्व के ज्ञान को टटोला तो ये पाया कि कन्या की कोई जात नहीं होती, शादी के बाद जो पति का धर्म और जाति वही सब कुछ कन्या को स्वतः प्राप्त हो जाता है। 

शिरोमणि ने ख़ुद को तसल्ली दी कि वो शादी के बाद रेशमा को हिन्दू धर्म के तौर-तरीक्रे सिखा देंगे और उनका ख़ुद का हिन्दुत्व भी बचा रहेगा। ये शिरोमणि के मंसूबे थे। उधर रेशमा कुछ और सोचे बैठी थी; वो मानती थी कि उसके ढाबे पर खाना खाने वाले लोग आम शहरी थे। कल को वो किसी फ़िल्मी हीरो की बीवी हो गयी तो इस सोच से ही उसके शरीर में ख़ुशी और रोमांच का सिहरन दौड़ जाया करती थी। वो दोनों मिलते और इस रिश्ते की ऊँच-नीच पर गुफ़्तगू करते, हलकान होते मगर उनकी आँखें ख़्वाबों के जुगनुओं से चमकती रहती थीं। 

इन फ़ंतासियों को यथार्थ का धरातल दिखाया गुल्लक सेठ ने। गुल्लक सेठ जो हिन्दुस्तानी कश्मीर के बांशिदे थे मगर आतंकवाद के कारण उनको अपने कुनबे के साथ अपना घर छोड़ना पड़ा था, मुसलमान होने के बावजूद। उसी आतंकवाद की भेंट चढ़ गयी थी गुल्लक सेठ की बीवी। बिना बीवी के दुधमुँही बच्ची को बम्बई में गुल्लक सेठ ने कैसे पाला था ये बात या तो वे जानते थे या उनका ख़ुदा। 

फ़ुटपाथ पर रेहड़ी लगाकर ये खोली और होटल उन्होंने कैसे बनाया था, ये सब याद करके वो सिहर जाते थे। अपनी बच्ची, रेशम से उन्हें इतनी मुहब्बत थी कि उन्होंने दूसरा निकाह नहीं किया कि सौतेली माँ से कहीं बच्ची के लाड़-प्यार में कोई कमी न रह जाये। 

आज अपनी इस ख़ून-पसीने से कमाई गयी दौलत यूँ एकदम से हिन्दू को सौंप देना उन्हें हरगिज़ गवारा न था। बेशक उन्हें बेटी की पसंद का एहतिराम था मगर वो थी तो बेटी ही। 

आज गुल्लक सेठ ज़िन्दा है तो रेशम की देखभाल है, कल को वो ज़िन्दा न रहें तो रेशम के साथ कुछ भी हो सकता है। हो सकता है, उसे कोई चेरी या लौंडी बनाकर रखे। गुल्लक सेठ फ़िल्म और टीवी वालों के किरदार से हरगिज़ मुतमइन न थे जो कपड़ों की तरह अपने हमसफ़र बदल दिया करते थे। 

मगर वो बेटी की ज़िद के आगे बेबस थे। बेटी भागकर शादी कर ले तो वो क्या कर लेंगे? सो उन्होंने अपना मास्टर स्ट्रोक चलाया। बेटी को दीन-दुनिया ऊँच-नीच समझायी कि जिस इश्क़ की दुहाई शिरोमणि दे रहा है अगर वो इश्क़ सच्चा है तो उसे इस बात से कोई एतराज़ नहीं होना चाहिये कि लड़की हिन्दू क्यों बने लड़का मुसलमान क्यों न बन जाये? ये बात रेशमा के दिमाग़ में घर कर गयी। फिर उसने बचपन से ही अपने माहौल में हिन्दुओं के बुरे होने के जो क़िस्से सुन रखे थे, उसे अपनी उन धारणाओं से भी पार पाना था। वैसे भी स्त्री प्रेम सम्बन्ध और धन की चाबी अपने पास ही रखना चाहती है। उसके पास जो भी होता है उसे बटोरे रहना, मुट्ठी में सहेजे रखना स्त्री का स्वप्न होता है, जबकि पुरुष अकल्पनीय पर ज़्यादा ध्यान देता है। 

सम्बन्धों की रस्सा-कशी चलती रही, कस्में-वादें, वास्ते, दुहाइयाँ दी गयीं, मगर सब कुछ गड्मगड्ड ही रहा। गुल्लक सेठ टस से मस न हुए, उनका निशाना ठीक बेटी के मर्म पर था। रेशमा को भी उनकी बात जंची हुई थी कि अगर इश्क़ है तो कैसा भेद। शिरोमणि को गाँव से कोई सलाह-मशवरा नहीं करना था। किसी शिरोमणि ब्राह्मण का धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बनना भी उस गाँव में अकल्पनीय था। जिस गाँव के वो शिरोमणि ब्राह्मण थे यानी कि सर्वोच्च वे निम्न कोटि के ब्राह्मणों से रोटी-बेटी का रिश्ता नहीं रखते थे। उस गाँव के निवासी शिरोमणि को मुसलमान बनने की सोच ही सिहरा देती थी। 

मुम्बई आये हुए उसे पाँच साल हो चुके थे। उसने अपनी वापसी के सारे रास्ते ख़ुद बन्द कर दिये थे। उसकी माँ उसके चेचेरे भाइयों से कई साल तक उसकी ख़ैर-ख़्वाह के लिए ख़त लिखवाती रही थी मगर उसे गोरखपुर की वापसी अपने सपनों का क़त्ल लगती थी; अब जबकि वो अपने मंज़िल के इतने क़रीब था। वापस जाकर उसे अपने भाइयों की तरह मट्ठी-मुट्ठी भर अनाज इकट्ठा नहीं करना था। यहाँ वो था, उसके सपने थे, फिर माँ को कब तक जीना था? उसे अपने सपनों की क़ीमत अपनों को खोकर चुकानी थी सो उसने चुकायी। हालात जीत गये मगर उन्हें इश्क़ की जीत का मुलम्मा पहनाया गया। 

शिरोमणि अब ख़ुर्रम कसूरी बन चुका था। ख़ुर्रम ख़ान या अंसारी नहीं बना, कसूरी ही बना क्योंकि गुल्लक सेठ का असली नाम गुल्बख्श कसूरी था। एक मज़हब क्या बदला, सब कुछ बदल गया। उसका भविष्य इस बात की तस्दीक़ की बुनियाद पर खड़ा था कि उसने मुसलामन होना रेशमा के इश्क़ के सबब से क़ुबूल किया था न कि अपने हीरो बनने के सपनों को पूरा करने के लिये। नतीजतन ज़रूरी और एहतियाती इस्लामी तौर-तरीक्रे सिखाये गये। कसूरी ने कलमा पढ़ना सीखा, नमाज़ पढ़ने की रवायत को अपनाया, रोज़े रखे। उसने ख़ास तौर से मुसलमानों वाली टोपियाँ और लुंगियाँ ख़रीदीं। मुस्लिमों की तमाम मजलिस का हिस्सा बना, इस्लामी तकरीर सुनी उन्हें समझा और फिर दूसरों को भी समझाना शुरू कर दिया। 

पुजारी के बेटे को आत्मा ने फटकारा तो दुनियादारी के संस्कारों ने तसल्ली दी कि ईश्वर एक है सिर्फ़ पूजा-पाठ का तरीक़ा बदला है। गृहस्थी की गाड़ी चलने लगी और चलता रहा साथ-साथ कसूरी का फ़िल्मी दुनिया का संघर्ष। गुल्लक सेठ मन ही मन कुढ़ते रहते थे उनका मास्टर स्ट्रोक बेकार चला गया था। वे कसूरी को अब भी ग़ैर मुसलमान मानते थे और उन्हें इस हिन्दू पुजारी के बेटे पर हरगिज़ यक़ीन न था। 

उन्होंने अपनी खोली, रुपया पैसा और होटल रेशम के नाम कर दिया था। गुल्लक सेठ ने ज़माना देखा था इश्क़ का भूत चढ़ते देखा था, हुस्न का रंग उतरते देखा था। उन्होंने एक क़दम और आगे जाकर अपनी जायदाद का ऐसा इंतज़ाम किया कि रेशम और कसूरी जायदाद से गुज़र बसर तो कर सकते थे, मगर रेशम जायदाद को बेच नहीं सकती थी ये हक़ उन्होंने रेशम के होने वाले बच्चों के नाम मुल्तवी कर दिया था बालिग होने तक। ग़ालिबन कल को कसूरी रेशम को कितना भी आइने में उतार ले तो भी वो प्रॉपर्टी बेच न सके। रेशम भी मानती थी कि आख़िर उसका शौहर जन्मजात तो हिन्दू ही था और हिन्दुओं के बारे में उसे अपनी शंकाओं से निर्मूल होना अभी बाक़ी था। सम्बन्धों की रस्सा-कशी चलती रही पाँच वर्षों के दरम्यान रेशम ने दो बच्चे पैदा किये वो भी लड़कियाँ। 

परिवार के ख़र्चे बढ़े तो ज़िन्दगी डाँवाँडोल होने लगी। सिर्फ़ शाम को खुलने वाला होटल अब दिन निकलते ही खुल जाता था और देर रात-रात तक आबाद रहता था। गुल्लक सेठ होटल पर तो होते थे मगर करते कुछ न थे। उन्हें एक हिन्दू के बच्चों को पालने-पोसने के लिये पसीना बहाना हरगिज़ गवारा न था। 

उनके दिल में इस बात की टीस थी कि उनकी बेटी ने उनसे दग़ा किया और एक ग़ैर-मुस्लिम से शादी कर ली। इसीलिये वो अपनी नातिनों से मन ही मन चिढ़ते थे कि कल को बड़ी होकर ये लड़कियाँ भी किसी हिन्दू से शादी ब्याह करें तो। सो गुल्लक सेठ अपनी सम्पत्ति की हिफ़ाज़त करते, काम कोई न करते और अपनी मेहनत की कमाई पर एक हिन्दू के फ़िल्मी सपने उन्हें हरगिज़ क़ुबूल न थे। 

शिरोमणि को परिवार चलाने के ख़र्चे कम पडे़ तो दिन में भी होटल खुला। इस तरह उसका सिनेमा को लेकर करने वाला संघर्ष धीरे-धीरे ख़त्म हो गया। इन्हीं दिनों विश्वव्यापी मंदी ने हिन्दी फ़िल्म उद्योग को अपने लपेटे में लिया। 

बहुत से छोटे-मझोले प्रोडक्शन हाउस बंद हो गये और बडे़-बडे़ सितारों को भी काम मिलना मुश्किल हो गया। जब बडे़-बडे़ सितारों को काम मिलने के लाले थे तो एकस्ट्रा कलाकारों की क्या बिसात थी। 

रंग-बिरंगे आयोजन और प्रोडक्शन हाउस बंद हुए तो जोगेश्वरी की सड़कें सूनी हो गयीं। ये दोहरी मार कसूरी पर पड़ी। अव्वल तो उसका छिट-पुट सिनेमा का रोज़गार जाता रहा। दूसरे जब स्ट्रगलर नहीं रहे तो होटल का धंधा भी बंदी की कगार पर पहुँच गया। ये बेहद कड़की के दिन थे, कसूरी और उसकी परिवार बैठकर रोटियाँ तोड़ रहे थे। 

ये मोहभंग का भी समय था क्योंकि परिवार की आमदनी घटती जा रही थी और ख़र्चे बढ़ते जा रहे थे। गुल्लक सेठ पत्ते नहीं खोल रहे थे। जिस परिवार में रोज़ सालन की खशबू उड़ा करती थी वहाँ पर अब सूखी सब्ज़ियों के भी लाले थे। हार कर रेशम ने जैनब के प्रस्ताव पर उसके सिलाई कारखाने में काम करना क़ुबूल कर लिया। 

मंदी की मार ऐसे पड़ी कि पगार न मिलने पर कसूरी के होटल के सब कारीगर चलते बने। कसूरी को कुछ ख़ास नहीं आता था सिर्फ़ चाय और बड़ा पाव बनाना आता था। सो गली के अन्दर का होटल बन्द करके सड़क पर एक ठेले पर रोज़गार शुरू करके ज़िन्दगी की जंग लड़ने लगा। 

समय पंख लगाकर उड़ता गया इधर आठ वर्षों में रेशम तीन बार गर्भवती हुई एक लड़के की उम्मीद से। मगर महँगाई और गुल्लक सेठ के निर्देश पर अल्ट्रासाउण्ड के ज़रिये पता लगाकर रेशमा की अजन्मी बेटियों को मार दिया गया। आठ वर्षों में चाय और बड़ा पाव बेचने वाले कसूरी की रंगत भी जाती रही और सपने भी। फिर इण्डस्ट्री की रौनक़ लौटी मगर कसूरी की रौनक़ तब तक जा चुकी थी। 

ये मायावी उद्योग या तो नये चेहरों पर दाँव लगाता है या कामयाब पर और कसूरी न तो नया था ना कामयाब। तीन गर्भपात के बात गुल्लक सेठ ने ये बात जान ली थी कि ‘कोमोसोम्स एक्स वाई’ का मुआमला क्या है। ये बात उन्होंने रेशम को भी समझा दी थी कि जन्मे-अजन्मे पाँच संतानों से अगर कसूरी लड़का नहीं पैदा कर सका तो अब कभी कसूरी के ज़रिये रेशम लड़के की माँ नहीं बन सकती। 

रेशम को एक लड़के की माँ बनना था। उसके भी सपने धराशायी हुए थे। फ़िल्मी हीरो के बजाय ठेले वाले की पत्नी बनकर वो बहुत आहत थी। गुल्लक सेठ रेशम को मुसलसल उकसाते रहे और रेशम के क्रोधाग्नि में घी डालते रहे। इन घावों पर फैजन सहानभूति के मल्हम लगाता रहा वक़्त बे वक़्त। 

किशोरवस्था में कभी रेशम और फैजन एक दूसरे पर आकर्षित थे मगर बीच में कसूरी के आ जाने से सारी तासीर बदल गयी थी। वहीं किशोरावस्था का दबा-छिपा इश्क़ बेकारी के इन दिनों में लड़के की उम्मीद से खाद-पानी पाकर खिल उठा। चाय और बड़ा पाव बेच रहे कसूरी को जब तक इसकी भनक लगी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उनके इश्क़ के चर्चे ख़ूब उड़ रहे थे। इस चर्चे और फैजन को शह दे रहे थे गुल्लक सेठ। इस बार जब रेशम हामला हुई तो फिर लिंग की जाँच हुई सरकारी पाबन्दी के बावजूद लिंग जाँच का ये गुनाह होता रहा। जो कि उम्मीद से उतर इस बार गर्भ में लड़का था। गुल्लक सेठ ने ये ख़बर सुनी तो बल्लियों उछल पडे़। फैजन और रेशम का, इश्क़ जिस तथाकथित भट्ठी में पक रहा था उसमें उन्होंने मानो पेट्रोल डाल दिया हो। उन्होंने रेशम से औलाद का जेनुइन वालिद पूछा तो उसने सर झुका लिया। 

गुल्लक सेठ की आँखें जुगनुओं की मानिंद चमक उठीं। उनका दिमाग़ बड़ी तेज़ी से कामकर रहा था उनके ही कुनबे का कश्मीरी ख़ून जैनब और वो भी मुसलमान तुर्रा ये कि तलाक़शुदा, बेऔलाद और कमाऊ और सबसे मुफ़ीद बात ये कि उनकी बेटी के इश्क़ में था। 

गुल्लक सेठ ने फैजन से बात की। फैजन ने अपनी ग़लती मानी तो मगर उसने कहीं न कहीं अपना शक गुल्लक सेठ से ज़ाहिर कर दिया कि शायद ये औलाद कसूरी की ही हो। गुल्लक सेठ ने अपनी शेख़ी बघारी कि कैसे उनको एक्स और वाई का मामला मालूम है ख़ुर्रम एक्स ही एक्स है इसलिये ये औलाद फैजन की है। फैजन निरुत्तर हो गया। गुल्लक सेठ ने कहा कि अगर वो रेशम से निकाह कर ले तो वो अपनी खोली, होटल, बैंक-बैलेंस उन दोनों के नाम कर देंगे, वो अपनी वसीयत बदल देंगे और ख़ुर्रम को धक्के देकर बाहर कर देंगे। 
फैजन ने पूछा, “और रेशम, क्या वो ख़ुर्रम को तलाक़ देगी।” 

गुल्लक सेठ ने कहा, “वो सब इंतज़ाम मैं कर लूँगा।” 

वक़्त के साथ सब अपनी चालें-पैंतरे चलते रहे। कुछ महीने बाद रेशम ने एक लड़के को जन्म दिया। इस दरम्यान कसूरी की लाख कोशिशों के बावजूद रेशम चुप ही रही; उसने कोई आश्वासन न दिया और फिर एक सुबह गुल्लक सेठ और फैजन की मौजूदगी में रेशम ने तीन तलाक़ कह कर कसूरी को ज़मीन सुंघवा दी। 

तब से कसूरी मौलाना और वकीलों के चक्कर लगा रहे हैं कि एक बार में तीन तलाक़ ग़ैर क़ानूनी है लेकिन उन्हें कुछ ख़ास सफलता नहीं मिली है। लोग उन्हें तसल्ली देते हैं कि रेशम का ग़ैर मर्द से ताल्लुक़ और एक बारगी का तलाक़ ग़ैर क़ानूनी भी है और सामाजिक रूप से भी ग़लत। 

इस चक्कर में महीनों बीत रहे हैं, कसूरी को दुकान, घर और रेशम और उनके बच्चों के जीवन से निकलवा दिया है गुल्लक सेठ ने। अफ़वाह है कि रेशम की इद्दत पूरी होने वाली है, अब वो निकाह करेगी फैजन से। 

गुल्लक सेठ जब तक कसूरी को शिरोमणि कहकर धमकाते रहते हैं कि वो यूपी की ट्रेन से गोरखपुर लौट जाये वरना वे उसे या तो जेल करवा देंगे या मरवा देंगे। 

कसूरी अब बेहद परेशान है क्योंकि उसके बच्चे भी उसको अब ‘शिरोमणि अंकल’ कहकर पुकारते हैं। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

लघुकथा

बाल साहित्य कविता

कहानी

सिनेमा चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं