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फिजेरिया

 

“सूट पहन के, लगा के चश्मा
कहाँ चले ओ मतवाले,
गिटपिट इंग्लिश बोल रहे हो
हिंदी की गले में तख़्ती डाले”

मैंने यूँ ही पूछा!

“चले हम फीजी, हिंदी के लिये
जल मत ओ बुरी नज़र वाले
पूछा नहीं बे, तुझे ओ व्यंग्यकार
तेरे दिल में क्या चलते भाले।”

उनकी बात सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। मैंने उन पर व्यंग्य की चिकोटी काटी थी उन्होंने तो व्यंग्य का ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया।

एक तो मैं वैसे ही सौतिया डाह की ईर्ष्या से जला-भुना बैठा था कि लिस्ट में फीजी जाने वालों में मेरा नाम सबसे ऊपर था। मैंने मंत्री जी की चिट्ठी और अनुशंसा पत्र भी लगवाया था। मंत्रालय की दो महिला सचिवों की अधूरी किताबों को पूरा करके उनको दिखवा लिया था और कई पत्रिकाओं के सम्पादकों से बात भी कर ली थी। बाक़ी केक, मिठाई, और यशोगान, परिक्रमा तो मैं मंत्रालय की बरसों से कर रहा हूँ, ये उसी का पुण्य प्रताप था कि देश में भले ही औसत से भी कमतर ग्रेड का लेखक लोग मुझे समझते रहे हैं, लेकिन सरकारी फ़ाइलों में मेरी कीर्ति का मौसम गुलाबी ही रहता है। मैं वहाँ पर हिंदी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर के तौर पर दर्ज हूँ, ये अलग बात है कि हर फ़ाइनल लिस्ट में मेरा नाम होने के बावजूद फ़ाइनली मेरा नाम छूट ही जाता है। न जाने कब ये शनि की साढ़ेसाती दूर होगी और मैं हिंदी सम्मेलन में विदेश जाऊँगा। मैंने पंडित जी को हाथ दिखाया और पूछा, “हिंदी सम्मेलन में स्वर्ग जैसे विदेश जाने की चाह कब पूरी होगी?”

उन्होंने स्पष्ट कहा, “स्वर्गवासी होने के बाद।”

फीजी की अपने साथियों के होटल, समुद्र तट और रंगीन तस्वीरों को देखकर मैं अंगारों पर लोट रहा था। वैसे तो मैं सम्मेलन की आख़िरी उड़ान के बाद ही मैंने उधर की तरफ़ सोचना-देखना बंद कर दिया था।

लेकिन मेरे व्यंग्यकार साथियों ने फीजी में सुबह मिलने वाली चाय से लेकर सोने के समय तक की फोटुओं में टैग कर के इतना जलाया है कि ईर्ष्या के मारे मेरा बीपी लो हो गया। वो लोग भी जानते थे कि मैं कुढ़ूँगा, चिढ़ूँगा, जलूँगा, इसलिये फीजी से वो लोग फोटो डालकर मुझे ही फ़ेसबुक पर टैग करते थे, वो जानते थे कि व्यंग्य बिरादरी अपनी तरक़्क़ी नहीं बल्कि अपने साथी व्यंग्यकारों को चिढ़ने-चिढ़ाने से ही चलती है।

मैंने निराशा में फ़ेसबुक ही ऑन करना छोड़ दिया कि अब जब फीजी सम्मेलन की चर्चा ख़त्म ही हो जाएगी तभी उधर जाएँगे।

लेकिन मेरे साथी व्यंग्यकार मुझे घाव देने का कोई भी अवसर छोड़ना नहीं चाहते थे, सो उन सारे व्हाट्सएप समूहों में ज़बरदस्ती जुड़कर अपने ख़ूब फोटो-वीडियो भेजी और मुझे ललकार कर सार्वजनकि रूप से मेरी प्रतिक्रिया भी माँगी। मन के अंदर अंगारों पर लोट रहा था लेकिन मन मारकर मुझे उन सभी को सार्वजनिक रूप से बधाई देनी पड़ी।

ऊपर से लोगों के सवाल कि “तुम फीजी क्यों नहीं गये?”

पहले तो कुछ दिन टालता रहा कि मैं व्यस्त हूँ। ऑफ़िस से परमीशन और छुट्टी दोनों नहीं मिलेगी। लेकिन ये चोंचले जब पुराने पड़ गए और लोगों ने मेरा मज़ाक़ उड़ाना शुरू कर दिया इस बात की नज़ीर देकर कि फीजी जाने वाले भी लोग तो ऑफ़िस के और सरकारी लोग ही हैं।

उनके इन तर्कों से मैं जवाब दे पाता तब तक किसी ने श्रीमती जी को बता दिया कि सरकार हिंदी के साहित्यकारों को फ़्री में फीजी घुमा रही है, आप भी चाहें तो सपरिवार फीजी जा सकती हैं।

मेरे मन के अंदर की उठापटक और सोशल मीडिया के स्यापे अचानक उछलकर मेरे घर में पहुँच गए।

सुबह-शाम वो पूछने लगीं, “हम फीजी क्यों नहीं जा रहे हैं?”

अब इस यक्ष प्रश्न का मैं क्या जवाब देता कि किसी नामाक़ूल साथी ने फ़ाइनल लिस्ट में मेरी जगह अपना नाम डलवा लिया हमेशा की तरह फ़ाइनली।

काफ़ी लानत-मलानत और फ़ज़ीहत के बाद मैं उन्हें समझा पाया कि– “सपरिवार जाने के लिये पूरे परिवार का पासपोर्ट होना ज़रूरी है। उस सम्मेलन में जाने के लिये बहुत पहले वीसा के लिये एप्लाई करना पड़ता है। वीसा मिल जाने के बाद भी कई बार नामालूम वजहों से लोगों को हवाई अड्डे पर रोक लिया जाता है,” ये कहते हुए मैंने 17 ऐसे अधिकारियों की ख़बर गूगल पर दिखाई जो उल्टे पाँव फीजी से बाफ़ज़ीहत लौटा दिए गए थे, क्योंकि उनका वहाँ होना ग़ैर ज़रूरी था।

श्रीमती जी इन तर्कों से न पिघलीं। उन्होंने साफ़-साफ़ कहा, “वो सब तो अधिकारी थे, साहित्यकार थोड़े न थे, जब साहित्यकारों का सम्मेलन था तो अधिकारियों की वहाँ क्या ज़रूरत थी? जिनकी ज़रूरत हो उन्हें ही वहाँ जाना चाहिए था।”

मैं श्रीमती जी को कैसे समझाता कि इस क्रॉनिक प्रश्न का उत्तर बरसों से हिंदी के लेखक और पाठक ढूँढ़ रहे हैं कि लेखक से ज़्यादा अधिकारी विश्व हिंदी सम्मेलनों में क्यों जाते रहते हैं?

मुझे कुछ न सूझा तो मैंने मस्का मारते हुए बात को लपेटा, “यही तो बात है बेबी, यही तो यूएसपी है इस मेले की, यहाँ पर वही जाते हैं, जिन्हें वहाँ नहीं होना चाहिए था; ये हमेशा से होता आया है, आगे भी होता रहेगा।”

श्रीमती मेरे तर्कों से हल्का सा मुतमईन तो हुईं लेकिन अगले ही पल उन्होंने अपनी असहमति का रोना रोते हुए कहा, “चलो ठीक है, हम पकड़ लिए जाते फीजी के हवाई अड्डे पर तो कुछ ले-देकर छूट जाते। वहाँ भी पुलिस ही तो होती, जैसे यहाँ कि पुलिस वैसे ही वहाँ की पुलिस। यहाँ भी तो हम एक ही मोटरसाइकिल पर हम-तुम और हमारा बेटा कितनी बार पकड़े गए हैं लेकिन कभी चालान हुआ क्या? कभी बातचीत से कभी कुछ ले-देकर छूट ही गए। लेडीज़ साथ में हों तो पुलिस वाले भी कुछ नहीं बोलते, इतना तो मैं भी समझती हूँ, ज़्यादा मत समझाओ मुझे, तुम्हारे ही मन में खोट था, जो मुझे कहीं साथ नहीं ले जाना चाहते। अब मैं तुम्हारे लायक़ नहीं हूँ ना।”

ये कहकर पहले तो वो सुबकने लगी फिर उसकी आँखों से ज़ार-ज़ार आँसू बहने लगे।

मैं इस इमोशनल अत्याचार से पूरी तरह बोल्ड हो गया। बात कहाँ से निकली थी और कहाँ लाकर पटक दी! वाह री नारी शक्ति तुझे प्रणाम, तुम विधाता को प्रणाम क्यों करती हो, विधाता को तुम्हें प्रणाम करना चाहिए।

ये सब कुछ देर तक चलता रहा और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ होकर सोचता रहा।

किन्तु हा, धन्य मानव!

“मानुष जब ज़ोर लगाता है
पत्थर पानी बन जाता है ।”

सहसा मुझे एक तरकीब सूझी। मैंने अपने स्मार्ट टीवी पर डिस्कवरी के बेहद लोकप्रिय शो “बैंगड्ड अब्राड” शो को लगाया और उसकी भाषा को मोबाइल रिमोट से बदलकर अंग्रेज़ी से हिंदी कर दी। मैं जानता था कि भले ही अंग्रेज़ी फ़िल्मों का श्रीमती जो को बहुत शौक़ था मगर वो अंग्रेज़ी फ़िल्में हिंदी चैनलों पर ही देखना पसंद करती थीं, क्योंकि मेरी तरह उनका हाथ भी अंग्रेज़ी में ख़ासा तंग था। मुझे उम्मीद थी कि हिंदी की वजह से जो संकट मेरे घर-गृहस्थी में पैदा हुआ है वो अंग्रेज़ी भाषा ही दूर कर सकती है।

“बैंगड्ड अब्राड” के दो-तीन शो उन्होंने देखे और शाम तक उनकी समझ में कुछ न कुछ आ ही गया। वो कुछ समझीं-कुछ बूझी और अंत में मुझसे पूछ बैठीं, “देखिये हम कोई ड्रग्स या बम बारूद लेकर तो जा नहीं जा रहे थे जो पकड़े जाते तो जेल जाते। वैसे भी हिंदी के लेखक के पास होता ही क्या है?”

उनके इस सवाल ने मेरे मर्म पर बड़ी गहरी चोट की।

हिंदी का लेखक अगर शादीशुदा हो तो उसे दोहरी चोट मिला करती है, घर-बाहर दोनों जगह।

मैंने श्रीमती जी को समझाना चाहा, “तनिक सोचो अगर हम फीजी हवाई अड्डे पर भले ही जेल न जाते लेकिन अगर वहाँ हवाई अड्डे अगर डिपोर्ट किये जाते या उल्टे-पाँव लौटा दिए जाते तो हमारी कितनी बेइज़्ज़ती होती। हमारे सब रिश्तेदार हमारी खिल्ली उड़ाते कि चौबे जी छब्बे जी बनने गए थे, दुबे जी बनकर लौटे। और ख़ास तौर से तुम्हारी सखियाँ-सहेलियाँ तुम्हारा अपमान करतीं तब?”

मैंने शब्दों की गुगली डाली।

श्रीमती जी ने मेरे शब्दों की गुगली को जाँचा-परखा और फिर उस पर अपने तर्क का छक्का लगाते हुए बोलीं, “वो सब मैं सह लेती, कम से कम इसी बहाने हम मुफ़्त में हवाई जहाज़ से फीजी तो पहुँच जाते। वैसे तो तुम्हारा लेखन दो कौड़ी का भी नहीं है, लेकिन अगर कभी लेखन काम भी आने लगे तो तुम्हारी भूसा-बुद्धि पूरा गुड़ गोबर कर देती है। फुद्दू कहीं के!”

ये कहते हुए वो वहाँ से पैर पटकते हुए चली गयीं।

उनके जाने पर मैंने चैन की साँस ली और बाज़ार की तरफ़ चल पड़ा कि आज हिंदी सम्मेलन में न पहुँच पाने का ग़म अंग्रेज़ी पीकर मनाया जाएगा। रास्ते में अकारण मेरे मुँह से एक गीत फूट पड़ा:

“न छेड़ो हमें हम फीजीयाये हुए हैं”

अचानक दूसरी तर्ज़ का गीत याद आया:

“सर्दी-खाँसी न मलेरिया हुआ
ये गया इसको फिजेरिया हुआ”

आपको भी तो लवेरिया की तरह फिजेरिया नामक लाइलाज मर्ज़ नहीं हो गया है।

ख़ुदा या . . . ख़ैर!

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