पानी
काव्य साहित्य | कविता महेश रौतेला2 Oct 2016
पानी ज़िन्दा लगता है
समुद्र में चलते
उछलते-कूदते, गरजते,
उड़ते हुए, ओस में ढलते
बर्फ़ बनते, बादलों में सरकते
ज़िन्दगी को गीला करते
गले से नीचे उतरते
आँसुओं में झड़ते
नदियों में बहते, ताल में रहते
वृक्षों को सींचते
बरसात में बरसते।
पानी ज़िन्दा लगता है
तुम्हारी, मेरी तरह।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"पहर को “पिघलना” नहीं सिखाया तुमने
कविता | पूनम चन्द्रा ’मनु’सदियों से एक करवट ही बैठा है ... बस बर्फ…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अरे सुबह, तू उठ आयी है
- आपको मेरी रचना पढ़ने की आवश्यकता नहीं
- आरक्षण की व्यथा
- इसी प्यार के लिए
- इसी मनुष्य की विभा सूर्य सी चमकती
- उठो, उठो भारती, यही शुभ मुहूर्त है
- उम्र मैंने खोयी है
- कभी प्यार में तुम आओ तो
- कितने सच्च मुट्ठी में
- गाँव तुम्हें लिख दूँ चिट्ठी
- चलो, फिर से कुछ कहें
- चुलबुली चिड़िया
- जब आँखों से आ रहा था प्यार
- जो गीत तुम्हारे अन्दर है
- तुम्हारी तुलना
- तूने तपस्या अपनी तरह की
- तेरी यादों का कोहरा
- तेरे शरमाने से, खुशी हुआ करती है
- दुनिया से जाते समय
- दूध सी मेरी बातें
- दोस्त, शब्दों के अन्दर हो!
- पर क़दम-क़दम पर गिना गया हूँ
- पानी
- फिर एक बार कहूँ, मुझे प्यार है
- बस, अच्छा लगता है
- बहुत बड़ी बात हो गयी है, गाँव में भेड़िया घुस आया है
- बातें कहाँ पूरी होती हैं?
- मेरा पता:
- मैं चमकता सूरज नहीं
- मैं तुमसे प्यार करता हूँ
- मैं वहीं ठहर गया हूँ
- मैं समय से कह आया हूँ
- मैंने पत्र लिखा था
- मैंने सबसे पहले
- मैंने सोचा
- लगता है
- वर्ष कहाँ चला गया है
- सब सुहावना था
- हम दौड़ते रहे
- हम पल-पल चुक रहे हैं
- हम सोचते हैं
- हमने गीता का उदय देखा है
- हे कृष्ण जब
स्मृति लेख
कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
{{user_name}} {{date_added}}
{{comment}}