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वियोगिनी का प्रेम

चंद्रपुष्प सघन केशों में सजाकर
रति को हृदय में बैठा कर
कंठ पर धारण करके वाग्देवी
एक वियोगिनी तीक्ष्ण आसक्ति में
प्रियतम को बुलाती है


वैरागी प्रियतम ने हृदय गूँथ लिया था
सुई से छिन्न करके
अपनी मेखल में सिंगी के साथ
और बींधे उर की यंत्रणा-मुक्ति 
उसी के स्पर्श से संभव है


विरह का अस्त्र भेद देता है
वियोगिनी का अंतस
जैसे काली पिपासिनी छिन्न करती है
खड़ग से नरमुंडों को


विरहाग्नि से प्रक्षालन करते हुए
वो जानती है कि मांस मज्जा की तलहटी पर
सुलगता हुआ शैल द्रव्य
आग्नेयगिरि बनने से पहले 
प्रिय का मिलन चाहता है
लेकिन, पंचभूतों की काया
प्रेम की उत्कंठा मात्र से ही
स्वयं को अस्पर्श्य मान लेती है


एक दिन जब उठेगी प्रलयाग्नि
और चौदह भुवन विलीन हो जाएँगे
एक शून्याकार कृष्ण रंध्र में
उस क्षण बचेंगे केवल दो लोग
विरहिणी और प्रियतम
एक दूसरे के प्रेम में डूबे हुए 
नितांत अकेले

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