सनातन चिंतन
काव्य साहित्य | कविता अरुण कुमार प्रसाद15 Dec 2023 (अंक: 243, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
देवताओं का विद्यमान होना सत्य तो है।
देवताओं का जन्म नहीं,
पहचान एक तथ्य तो है।
देवता प्रकृति का नामकरण है,
जल का देवता, अग्नि का देवता,
पवन का देवता, सृष्टि का देवता,
सृष्टि-पालन का देवता,
सृष्टि-परिवर्तन का देवता।
प्रकृतिगत और प्रवृतिगत
ऊर्जा-पुंज की पहचान ही तो
है सनातन।
हम पाषाण नहीं शक्ति के स्वरूप को हैं पूजते।
वस्तुतः उन्हें पूजकर अपने रूप को हैं पूजते।
पाषाण-खंड को प्रस्थापित कर
व्योम के अपरितिम सौंदर्य
और शौर्य को देते हैं पहचान।
प्राण को उन खण्डों में प्रतिष्ठित कर
प्रक्रिया यह है, देना मनुष्य को वरदान।
जो ऊर्जा संरक्षित है
जल, अग्नि, पवन, स्रष्टा की विभिन्न क्रियाओं में
उनका प्रकट करना आभार।
उन्हें करना स्वीकार।
सनातन को अंगीकृत कर
धन्य करना अपना संदर्भ।
यह देह और विदेह मन को
करना है ज्यों दीक्षित कोई पर्व।
अनन्त जगत पाषाण खण्ड से निर्मित
अव्यवस्था में भी पूर्णतः व्यवस्थित।
दृढ़तापूर्वक जीवन का निर्माण।
जीवन क्या नहीं है? एक स्पंदित पाषाण।
इस स्पंदन को शोधित, परीक्षित और
उद्भासित करना ही है सनातन।
सनातन भ्रम नहीं है।
जीवन पद्धतिपूर्वक
जीना और मरना है सनातन।
हम पूजते हैं वृक्ष।
हम माटी पूजते हैं।
हम पूजते हैं जीवन के हर स्वरूप।
हमारा पूजना बनाता है
कण तक को अनूप।
जो स्थित है सर्वकाल में और
परिवर्तन जिसका संकल्प है,
उस परिवर्तन को मस्तक झुकाना और
परिवर्तन को आत्मसात करना सनातन है।
सनातन पूजा-पद्धति नहीं है।
किसी भ्रमित मन की उत्पत्ति नहीं है।
जो सत्य है वह सनातन है।
और जो सनातन है वही सत्य है।
उदय और अस्त स्वयंभू है।
उदय और अस्त का विस्तार जीवन है।
और यह जीवन जड़ भी है और जीवित भी।
जीवित जीवन अल्प है,
जड़ जीवन अल्प से बड़ा।
सबको जीने का अधिकार है पर,
रखते हैं सब ही
मरने की आकांक्षा।
सनातन की व्याख्या, व्याख्या से परे है।
हमारे आकाश में सूर्य नहीं है तब भी
सनातन है।
सनातन नियम नहीं किसी का तर्क नहीं
नियमपूर्वक और तर्कपूर्वक जीना सनातन है।
नियम का नियंता मानवता है।
तर्क की युक्तिसंगतता भी मानवता है।
इसलिए
सनातन का धर्म
कर्म का सत्कर्म और दुष्कर्म में
करता है परिभाषित।
ईश्वर को प्राप्त करना सनातन का कर्त्तव्य
नहीं है।
नियमपूर्वक और तर्कपूर्वक जीकर
ईश्वर हो जाना—बस यही है।
हम धर्म से नहीं सनातन से बँधे हैं।
हम कर्म से नहीं कर्त्तव्य से सधे हैं।
हर को मिले ज़िन्दगी का वरदान।
हर श्राप का हो तुरत-फुरत अवसान
सनातन, सभ्यता और संस्कृति तय करे।
न कि सभ्यता और संस्कृति—
सनातन की परिभाषा गढ़े।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता - हाइकु
कविता
- अनुभूति
- अब करोगे क्या?
- अब रात बिखर ही जाने दो
- आओ सूर्य तुम्हारा हम स्वागत करें
- ईश्वर तूने हमें अति कठिन दिन दिये
- उदारवादिता
- उपहार
- एक संवाद
- ऐसे न काटो यार
- कृश-कृषक
- कैसे पुरुष हो यार - एक
- गाँधी को हक़ दे दो
- जग का पागलपन
- ज्योतिपात
- डर रह गया
- तरुणाई
- तिक्त मन
- तुम्हारा शीर्षक
- पाप, पुण्य
- पीढ़ियों का संवाद पीढ़ियों से
- पुराना साल–नया वर्ष
- पेंसिल
- पैमाना, दु:ख का
- प्रजातन्त्र जारी है
- प्रार्थना
- प्रेम
- फिर से गाँव
- मनुष्य की संरचना
- महान राष्ट्र
- मेरा कल! कैसा है रे तू
- मेरी अनलिखी कविताएँ
- मैं मज़दूर हूँ
- मैं वक़्त हूँ
- यहाँ गर्भ जनता है धर्म
- शहर मेरा अपना
- शान्ति की शपथ
- शाश्वत हो हमारा गणतन्त्र दिवस
- सनातन चिंतन
- सब्ज़ीवाली औरत
- ज़िन्दगी है रुदन
चिन्तन
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं