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तिक्त मन 

 

आदमी तुम्हारी आत्मा मर गयी। 
और
उससे ज़्यादा तुम मर गये। 
शान्ति का पाठ करने वाला ‘वह’ पण्डित! 
वह भी मर गया। 
युद्ध में जीवन ही नहीं मरता 
सारी संचित अच्छाइयाँ भी। 
 
युद्ध में समय रेत सा नहीं फिसलता
ख़ून सा पिघलता है। 
योद्धा, 
क़त्ल करने और नष्ट करने 
ध्वंस करने और धराशायी करने; 
इंसानियत पहले मारता है फिर 
मारने को सँभलता है। 
उसे वरदान किसने दिया था? 
पुष्टता का! 
उसे बुलाओ और आओ सर्वप्रथम उसका क़त्ल करो। 
धर्म का लेखा-जोखा रखनेवाले से इसे
धर्म के खाते में अंकित करने को बाध्य करें। 
 
युद्ध के पहले, ठीक प्रस्थान से पूर्व—
युद्ध को हमारा धर्म बताने वाले को 
हमारे समक्ष हाज़िर करो। 
उसे बताने के लिए कि युद्ध गुनाह है। 
उसे समझाने के लिए कि 
मरुभूमि सा जीवन जीना युद्ध का भविष्य है। 
 
माताएँ युद्ध में मृत पुत्रों को, 
पत्नियाँ मृत पतियों को और 
बच्चे मृत पिताओं को 
आकाश के तारों में ढूँढ़ने को 
गौरव समझें—
यह मानवता का विध्वंसात्मक पतन है। 
किन्तु, वे ढूँढ़ते हैं। 
 
यह सिर्फ़ बाप है जो रो नहीं सकता 
दहाड़ मारकर। 
उसे भी युद्ध में नहीं तो समाज में 
योद्धा बनकर मरना है। 
 
जाते हैं
युद्ध के लिए पारितोषिक बिछा दिये। 
राजा कि नीति है 
राजनीति नहीं। 
 
मानव के आभमंडल में 
युद्ध इसलिए जीवित रहेगा 
क्योंकि धर्म का अधर्म 
सत्य का असत्य जीवित रहेगा। 
युद्ध की पद्धतियाँ और परम्पराएँ 
जीवित रहेंगी। 
जीने की पद्धतियाँ और परम्पराएँ 
युद्ध की पद्धतियों और परम्पराओं से
अलग हैं। 
इसमें बस भूख और दर्द सर्वोपरि है। 
इस भूख और दर्द के लिए कितने ग्रंथ 
गये लिखे! 
युद्ध के लिए किन्तु, 
ग्रंथ उपलब्ध हैं। 
ग्रंथ के लिए अति अपरिभाषित सिद्धांत 
और सिद्धांत के लिए 
आप पता करें 
स्वार्थ ज़िम्मेदार है। 
 
श्मशान और क़ब्रिस्तान को 
नफ़रत है युद्ध से। 
बहुत ही खिन्न और अशांत 
होते हैं वे 
जब योद्धा का शव लया जाता है। 
नकार देता है, जगह नहीं देता। 
इतनी नफ़रत है उसके पास। 
मनुष्य क्यों नहीं कर पाता है 
घृणा और नफ़रत। 
‘यह’ मानव मन का घिनौनापन 
क्यों नहीं होता घोषित। 
 
युद्ध में आस्था और 
आस्था को जीवित रखने युद्ध 
यह घिनौनापन ही तो है हमारा। 
 
हमें यहीं बचना चाहिये अनिवार्यत:। 
 
हर संविधान में और शासन में शपथ 
सर्वप्रथम युद्ध नहीं करने का 
प्रण हो। 
 
सत्ता कुर्सियों की नहीं होती काश! 
सत्ता परमार्थ, स्वच्छ सेवा की हो तो
ईश्वर के विधान की स्थापना 
होती है। 
 
युद्ध हमारा स्वभावगत नहीं
अहंकार एवम् तुच्छता के बोध से 
है उपजती हुई नकारात्मक शक्तियाँ। 
युद्ध करने को नहीं पनपती या 
उपजती कोई परिस्थितियाँ। 
 
प्रथम युद्ध करने का मन बनाते हैं लोग। 
फिर करते हैं पैदा स्थितियाँ और परिस्थितियाँ। 
 
जंगल के बीच 
युद्ध भूख का होता है, इसके बाहर 
जन्म लेता है युद्ध की भूख। 
उनका अधिकार का युद्ध है
जीने के अधिकार का। 
जीते रहने के अधिकार का। 
 
युद्ध हमें बचाये। 
हम युद्ध को बचायें। 
युद्ध हमसे बचे। 
हम युद्ध से बचें। 
आओ चलो। 

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