मैं मज़दूर हूँ
काव्य साहित्य | कविता अरुण कुमार प्रसाद1 Jul 2024 (अंक: 256, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
कहते हैं मैं एक मज़दूर हूँ ये सारे लोग।
विद्रोह नहीं कर पाते हैं क्योंकि हमलोग।
श्रम करते तो सब हैं, स्वेद बहता किन्तु हमारा।
तेरे श्रम में सुगंध है अर्थ की, गँधाता है हमारा।
स्वेद की दुर्गंध में निर्माण की सुगंध कोई नहीं देखता।
धूल, मिट्टी से चुपड़ी मेरी देह में मज़दूर सब को दिखता।
मेरे पास रास्ते बहुत हैं, यात्राएँ सीमित हैं।
नभ से धूल उतारने को हम सदा नत हैं।
पुष्प-गुच्छों से लदी तेरी छातियों पर मेरा ही स्वेद महकता।
मेरा पुत्र मेरे ढहे घर में आज भी रोटी को रोता-बिलखता।
देश और दुनिया में हम विद्रोह की पदचाप कब सुनेंगे?
माटियों के सुप्त गर्भ, मज़दूरों के लिए रोटियाँ कब जनेंगे?
फ़िक्र और इंतज़ार से रोटी के, ध्वस्त है हमारा अहम।
ग़रीबी सत्य ही अभिशाप है पर, व्यस्त है जुटाने दम।
मज़दूर एक गाँव सा ही असहाय है।
दर्द ही झेलना है, वह तो निरुपाय है।
आज लिख रहा हूँ मज़दूरों की आकांक्षाओं की कविता।
जानता हूँ मैं, कोई नहीं है उसका, शिव हों या सविता।
असुरक्षित भविष्य और अनिश्चित आज लेकर जीते हैं।
हर फटे सपनों को उम्र भर बार-बार टूट कर सीते हैं।
उपवास की भूख से लोग अपनी काया सजाते-सँवारते हैं।
भूख के उपवास मज़दूरों की देह को सचमुच ही मारते हैं।
हवा, पानी तथा धरती पर किसने खींची हैं लकीरें।
और देखें कि क्या, क्या देते हैं इसकी वे तक़रीरें।
“समरथ को नहीं दोष गुसाँई” वाले शब्द निंदनीय हों।
“वह तोड़ती पत्थर, इलाहाबाद के पथ पर” वंदनीय हों।
आपाधापी की वैचारिक सोच जन्म देती है मज़दूर।
ध्वंस ही जिस दौड़ का फल है दौड़ने को सब मजबूर।
दैहिक श्रम चुगने तक को भी शाश्वत है ब्रह्म सा।
श्रमिक सब हैं, हमें मज़दूर कहते देवों के छल सा।
व्यवस्थाएँ ख़ुश बाँटकर मज़दूर का बिल्ला हमें, तुम्हें।
इस “कोरोना काल” ने नंगा किया हम थे ही, उन्हें।
धरती को भूख से डर नहीं है, तत्पर सर्वदा मिटाने।
मुकुट वालों ने अपच सा बाँटा व रख लिया सिरहाने।
व्यवस्थाओं के पास हल होने चाहिए युद्ध के विजय सा।
युग को होना चाहिए उठकर खड़ा मज़दूर हेतु नए वय सा।
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