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यहाँ गर्भ जनता है धर्म 

 

गर्भ में शिशु पलते हैं
वर्ण नहीं, जातियाँ नहीं। 
गर्भ से अश्रद्धा नहीं की जाती
तथा निन्दा नहीं। 
 
शिशु, स्वरूप हैं रचना का। 
वाहक 
काल-रूप अनन्त, विवेचना का। 
 
जहाँ मूर्त-रूप ईश्वर है साक्षात्‌। 
वहाँ से आना है सुन्दर प्रभात। 
वहाँ एक मन है, नहीं जिया हुआ जीवन है। 
विश्व को देने के लिए नये-नये स्वप्न हैं। 
 
उस शिशु के लिए नवीन संसार बनाते। 
भय, राग, द्वेष, घृणा से विहीन संसार सजाते। 
द्वैत, अद्वैत के सिद्धान्त में न उलझाते। 
वंश, कुल, गोत्र, गण से उसे अलगाते। 
 
उसके अस्तित्व को उसके स्वयं का होने देते। 
अपने विजय की ध्वजा स्वयं फहराने देते। 
 
लोगों ने कोख बाँट दिये हैं। 
ये हिन्दु का है ऐसा छाँट दिये हैं। 
फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र जैसा
गाँठ दिये हैं। 
फिर समाज से समता ग़ायब कर 
ऊँच, नीच को दे पाँव दिये हैं। 
एक दूसरे को लतियाये। 
गाली, गलौज में बतियाये। 
हमें तो हिंदु रहना है। 
और अपमानित होते रहने के बाद भी 
गर्व से ही कहना है। 
 
यह कोख हिन्दुओं का है
इसे विषमता जन्म देने के लिए
रचे गये पुस्तकों की शृंखला। 
लिखनेवालों का विज्ञान इतना तुच्छ है
कि प्रश्न शर्मसार हो चला। 
 
वेदना रचे गये हैं, बाँटे गये हैं
मनुष्य को मनुष्य के द्वारा। 
गर्भ वेदना नहीं जनती, संकल्प जनती है। 
जनने को मजबूर हुई मनुष्य के द्वारा। 
 
न्यायहीन विधान रचा गया। 
और वह हमारा न्याय पचा गया। 
 
कोख ने नहीं जना 
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र। 
इसे परिभाषित जिसने किया, 
क्यों नहीं कहें उसे क्षुद्रातिक्षुद्र।

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