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पुनर्जन्म

 

आज से सौ-डेढ़ सौ साल बाद इस पोस्ट को पढ़ने वाला हममें से कोई भी जीवित नहीं रहेगा।

अभी हम जिस चीज़ को हासिल करने के लिए युद्ध कर रहे हैं उसको संभवतः शत-प्रतिशत पूरी तरह से भुला दिया जाएगा। अगर हम अभी से 150 साल पूर्व की स्मृतियों में वापस जाएँ, तो वह सन्‌ १८७३ होगा। उस समय दुनिया को अपने सिर पर उठाये रखनेवालों में से कोई भी आज जीवित नहीं है। इसे पढ़ने वाले लगभग हम सभी लोगों के लिए यह मुश्किल होगा कि उस युग के किसी भी चेहरे के हर आयाम की कल्पना कर लें।

यह अवश्यंभावी है कि उनमें से कुछ ने अपने रिश्तेदारों को एक छोटे से स्वार्थ के लिए धोखा दिया होगा और उन्हें असीम दर्द दिया होगा। कई लोग ज़मीन के टुकड़े या थोड़े भोजन या त्रिविध ताप से बचने के लिए परेशान रहे होंगे। वे सारी चीज़ें जिसके लिए धोखा दिया गया था वे अब कहाँ हैं या ख़ुद वे कहाँ हैं? आज से महज़ 50 वर्ष पूर्व का समय भी, यह अब हमारे लिए अजीब लग सकता है, लेकिन हम इंसान कभी-कभी ऐसे ही होते हैं, ख़ासकर जब पैसे, शक्ति या प्रासंगिक होने की कोशिश की बात आती है।

मुझे अपने हायर-सेकेंडरी स्कूल और कॉलेज के वे दिन याद हैं, कैसे लोगों ने मुझे और मेरी पढ़ाई को सपोर्ट नहीं करने के लिए कैसे-कैसे बहाने गढ़े। दुनिया में ईश्वर को सभी का अविभवाक होना ही चहिये। प्राणी बनने वालों में अपना नाम छाँटने का कोई विकल्प नहीं है। कितनी ही अकल्पनीय बेचारगी और निरीहिता से जीवन जीना पड़ता है। स्कूल और कॉलेज में मैं मेधावी छात्र रहा इसलिए अपना जीवन बिना किसी उपयुक्त सहायता के आगे बढ़ा सका। मेधा प्रदान करने के लिए जो भी दायित्वदार हैं, उन्हें मेरा कोटिशः आभार और धन्यवाद्। लेकिन आज उस स्कूल में या कॉलेज में किसी को याद नहीं है कि तब मेरी अलोकप्रिय अर्थिक स्थिति के बावजूद मैंने वहाँ पढ़ाई की थी।

अब सोचिए कि अब से सैकड़ों साल के बाद क्या होगा। अब की अंतर्जालीय युग के बाबजूद यह सोचना कि हम और हमारी सारी गतिविधियाँ समय के पटल पर सुरक्षित रहेंगी—बेमानी है। एक सच्चा प्रतिष्ठित जीवन जीना अत्यंत कठिन है। छल-प्रपंच की शृंखला से स्वयं को अग्रणी बनाना आसान हो सकता है। यह पता लगाना कि भविष्य में इसे किस तरह से समाप्त किया जायगा कठिन ही नहीं असंभव है। जो आज रचनाकार हैं और जो कल भविष्य के दर्शक होंगे समय दोनों को संतुष्ट करे, ऐसा होना कठिन होने का हिस्सा है।

इतिहास उत्तराधिकार है।

देखिये कि आपके ही सुदूर अतीत में कितने ऐसे चेहरे थे जो तब प्रासंगिक रहे होंगे किन्तु अब उनकी या उनके द्वारा किये जानेवाले कार्यों की कोई प्रासंगिकता नहीं है। कल्पना कीजिये आपको रोमांचित करनेवाले कितने ही कवि, कथाकार और कलाकार या शासक रहे होंगे जो जब जीवित थे तो समाज में और दुनियाँ में उनका कितना उन्माद रहा होगा। वे अब नहीं हैं। उनकी कृति अब भी उन्हें महान बनाये रख रही है। इसलिए कर्म मानवीय करना हमारी प्राथमिक आवश्यकता होनी चहिये। भविष्य में जब उन कवियों, कथाकारों और कलाकारों या शासकों का जब नाम आयेगा तो किसीको आलोड़ित नहीं करेगा। हाँ जब उनके द्वारा किये गये कार्यों का उल्लेख किया जायगा तो लोग उन्हें नमन अवश्य करेंगे।

इतना ही नहीं उसके अमानवीय कृत्यों के लिए भविष्य की पीढ़ी उसके समय की पीढ़ियों की भाँति ही उसकी निंदा करेंगे और नफ़रत भी। भविष्य की पीढ़ी उन्हें ऋणात्मक विस्मयता से अनुभव करेंगे।

जीवन को आसान बनाने के लिए लोभ, लालच और लिप्सा के बिना इस दुनिया से ज़िन्दा रहकर विदा होने का संकल्प लें। लोभ, लालच और लिप्सा से प्रतिस्पर्धा नहीं मन में ईर्ष्या का प्रादुर्भाव होता है। ज़मीन के जिस टुकड़े पर आप अनधिकृत आधिपत्य के लिए लड़ रहे होते हैं और मरने मारने को तैयार हैं—उस ज़मीन को कोई और छोड़ गया है। वह मर चुका है। वह सड़ चुका है। और वह भुला दिया जा चुका है। सबका ही यही हाल होगा। आने वाले सौ-डेढ़ सौ सालों में, आज आप जिन अनावश्यक सुविधाओं का उपयोग अपनी महानता और महत्ता दिखाने के लिए करते रहे हैं, उनमें से कोई भी सौ-डेढ़ सौ सालों के बाद प्रासंगिक नहीं रहेगा। इसलिए न्यूनतात्मकता जीवन का आदर्श बनाएँ! सुख की परिभाषा जीवन की सृष्टि के समय से ही अपरिभाषित है।

सौहार्द और प्रेम को आगे बढ़ने दें। घृणा का जन्म और दूसरे के प्रति असहिष्णुता का भाव आपके द्वरा किये गये अलोकप्रिय कार्यों से होता है। जीवन का तुलनात्मक अध्ययन ऐश्वर्य से करने के बनिस्बत हमें हमारे मानवता के प्रति निभाये गये कर्त्तव्यों से करना चहिये।

निर्माण का हर कण समान तकलीफ़ों से गुज़रता है। इसलिए आकार ग्रहण करने के बाद हर निर्माण का समान अधिकर है। इसलिए किसी अधिकार की उपेक्षा नहीं करें। स्रष्टा के द्वारा जीवन और अधिकार की सतत व्याख्या एक दूसरे के लिए वास्तव में पूरक है। द्वेष नहीं करने का कोई दुःख नहीं होना चाहिये। ईर्ष्या और तुलना नहीं करने का कोई दुःख नहीं होना चाहिये। जीवन को प्रतियोगिता नहीं बनने देना ही स्रष्टा के प्रति हमारा उत्तरदायित्व निभाना है। जीवन के अस्त होने पर हम कुछ नहीं ले जाते हैं सिर्फ़ दूसरे की अपने प्रति नापसंद, घृणा, क्रोध और श्राप के। जिन कणों से हम बने हैं इस नापसंद, घृणा, क्रोध और श्राप के कारण उनके गुण-दोषों का निर्धारण होता है और वही कण जब पुनः जीवन धारण करता है तो उसके जीवन में उसकी पुनारावृति होती है, यही तो कर्मों का फल है जो हम पुनर्जन्म में वहन करते हैं।

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