तरुणाई
काव्य साहित्य | कविता अरुण कुमार प्रसाद15 Apr 2020 (अंक: 154, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
चंद बूँद ख़ून के,
कुछ क़तरा पसीना।
निचोड़ कर थोड़े से आँसू
तपते हुए रेत पर गिराना।
और,
उबलकर उठती हुए भाप में
दो मुट्ठी हवा
गेहूँ के दाने के साथ में
पकाना।
आदमी को
अवश्य बताना।
बाँहों में पानी।
मुट्ठी में रौशनी।
फेफड़ों में व्योम।
मन की नस नस में और
लू की लपट का
चेहरा जमाना।
जंगल के पत्तों पर
शब्दों की तीली घिस
फूलों के ओठों पर
आग सुलगाना।
पर्वत के पीछे से
सूरज की मौत पर
रोज़ नया सूरज
मुर्दे के मानस में
तुरत-फुरत
टाँग-टाँग आना।
श्मशान की स्याह वीरानी में
जल गए चेहरे को
जलसे का न्योता
बाँट-बाँट आना।
दुर्ग के गुंबज पर
रंगों, रेखाओं से
पानी के दरिया में
आग की नाव का
धधकता हुआ चित्र बनाकर
एक नया परचम
संध्या से सुबह तक
रोज़ फहराना।
अपनी तरुणाई को
तरुण बनाए रखना।
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