ईश्वर तूने हमें अति कठिन दिन दिये
काव्य साहित्य | कविता अरुण कुमार प्रसाद15 Dec 2021 (अंक: 195, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
ईश्वर तूने हमें अति कठिन दिन दिये।
क्या कहूँ कैसे हैं हमने ये दिन जिये।
शाम कुचला हुआ भोर निढाल सा।
रात्रि स्वप्न में दिन ये बेहाल सा।
रोज़ी, मजूरी ताकते-ताकते।
इस जगह उस जगह धूल फाँकते-फाँकते।
सूर्य को ताकता, अर्घ्य भी डालता।
मंदिरों की गली, देवता-देवता।,
कुछ भी करने को तत्पर परंतु, कहाँ!
ताल ठोक कर बदक़िस्मती खड़ी है यहाँ।
एक ही काम के इतने उम्मीदवार थे।
एक ही अनार था हम सब बीमार थे।
वह क़िस्मत चिढ़ाती ठहाके लगा।
देता इसको भगा कभी उसको भगा।
तय किए तूने जीवन के क्या मापदंड?
ईश्वर तुमने तो सोचा होगा प्रचंड।
तब ख़ुशी के पैमाने किए होंगे तय।
या तलाशे बिना कर लिया है विजय।
आत्म-तुष्ट हो गए रचके वैश्विक विधि।
क्यों न बाँटी प्रभु सम ही सारी निधि।
आत्मज्ञानी बड़े कहलाते हो तुम।
सृष्टि तक के रचक कहे जाते हो तुम।
दु:ख के हिस्से में बड़ा इतना ब्रह्मांड क्यों?
इन अभावों में चुभन, दर्द, पीड़ा है क्यों?
तन को तपते हुए सूर्य में ला किया खड़ा।
भाग हमारे में निष्प्राण पाषाण जड़ा।
किस कथा के लिए तुमने रचना रचा।
किस अपनी व्यथा की दिये हो सजा।
ध्वंस शाश्वत ही है तो निर्माण क्यों?
इतनी विपरीतता की ऐसी ये ठान क्यों?
जड़ बनाने का संकल्प मालूम है।
जीव में प्राण देने का क्या गूढ़ है?
प्राण में लोभ, लालच घुसेड़े हो क्यों?
क्षुधा, प्यास; डर-भय बटोरे हो क्यों?
देवता का करम हमको लगता नहीं।
देवता हो भरम, तुमको लगता नहीं?
पुनर्जन्म में हमको करना वणिक।
मोल–भाव कर हम कि पाएँ तनिक।
लेन-देन तुमसे ही करना है प्रभु।
दु:ख, पीड़ा तुम्हारा है अपना प्रभु।
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