अनुभूति
काव्य साहित्य | कविता अरुण कुमार प्रसाद15 Aug 2020 (अंक: 162, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
कुछ मुट्ठी चने के बोकर हे माटी,
मैंने पूरा किया है, तुम्हारा प्रण।  
दिया है मैंने तुम्हारे संकल्प को जो, 
सृष्टि को देने का तुम्हारा पोषण। 
अंकुरण और परिपक्वता । 
विद्युत के दो आवश्यक छोर। 
विद्युत के शुरू होने की दिशा सा जीवन। 
अंकुरण से या परिपक्वता से!
बीज परिपक्व होता है पूर्व अंकुरण के।
या कि अंकुरण के बाद परिपक्व बीज। 
प्रारंभ, अन्त है कि अन्त प्रारंभ?
सा जटिल प्रश्न। 
क्या कहती है आम अनुभूति ?
अनुभूति को अभिव्यक्त करने का ही नाम 
है जीवन। 
सृष्टि में जड़, जीवन सा ही है पावन । 
वायु ईश्वर सा अप्रतिम। 
जल ईश्वर सा आवश्यक।
अन्न ईश्वर सा अभिन्न। 
प्रवाह जीवन का संकेत। 
रुकना भीषण भयावह प्रेत। 
प्राण का जीवन में कितना अंश! 
क्या नहीं है जितना ईश्वर अनन्त?
आ पृथ्वी का क्रोड तलाशें। 
जीवन क्यों है यहाँ? जिज्ञासा पालें। 
बहुत जिये तो सीखा थोड़ा।
जीवन जीना रह ही गया अधूरा। 
आस्था जीवन में चाही टिकानी। 
डरा किया जीवन, देख अपना ठिकाना। 
तार-तार हो बिखरता 
जीवन-जंग और फ़साना।  
आस्था, विश्वास के गर्भ से हो तो। 
विश्वास, संघर्ष में आस्था के होने से हो तो । 
संघर्ष में ‘अपनी’ आज्ञा हो तो। 
जीवन जीते हुए अच्छा लगता है। 
‘वसीयत’ की ज़िंदगी जीना ही तो 
जीना रिक्तता है।  
सिर्फ़ मनुष्य ही जीता है वसीयत। 
अरण्य की नहीं ऐसी नीयत। 
पृथ्वी के साथ अनेक पिण्डों का 
रचना या जन्म, सत्य है।  
वहाँ जीवन ‘क्यों? या क्या?’ है असत्य। 
जीवन के लिए अद्वितीय व अद्भुत रसायन का उत्पादन 
स्रष्टा का जन्मना है। 
हेतु इसके 
विशिष्ट तात्विक, यौगिक, भौतिक कणों के ऋषि-देवता को 
अपना-अपना समीकरण होता लाना है।  
जतन से विश्वकर्मा तब जाता है ढाला।  
उसका स्वरूप मानव सा? या अदृश्य काला?
कर्तव्य से वह होता है विश्वकर्मा। 
वही है सृष्टि का रचनाधर्मा। 
जीवंत अस्तित्व की परिकल्पना, प्रारूप और योजना
करता है वह। 
सारे जतन सारे श्रम सारे कौशल सारी विद्वता और बुद्धि से 
सारे रसायनों और सारे समीकारणों को
जोड़ता है वह। 
जड़ से जीवन निर्मित करता है वह। 
दूसरे पिंडों के ऋषि-देवता सुप्त हैं। 
और विश्वकर्मा भी गुप्त है। 
जीवन इसलिए वहाँ जड़ है।
और अघड़ है। 
 
इन पिंडों का युद्ध है निष्प्राण । 
हार कर जीता हुआ युग। 
किसी ईश्वर की अब भी प्रतीक्षा। 
वह ईश्वर शीघ्र आए ऐसी इच्छा। 
ईश्वर वह है जो ऊर्जा है।
ऊर्जा वह है जो ताप करे उत्पन्न। 
ताप वह जो बल से है सम्पन्न। 
तम भी ताप है 
निष्क्रिय है अत: पाप है। 
जीवन सिर्फ़ अनुभूति है ईश्वर की। 
जैसा मंतव्य हो वैसा प्रारंभ करो 
शाश्वत या नश्वर की। 
 
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