शान्ति की शपथ
काव्य साहित्य | कविता अरुण कुमार प्रसाद15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
युद्ध नहीं दुहराने की शपथ
युद्ध से थककर किए जाते रहे हैं।
युद्ध में पराजय का प्रायश्चित्त
और
युद्ध में विजय का प्रसन्नचित्त।
नए युद्ध की पटकथा लिखने को
आतुर रहा है।
विश्व में शान्ति-समझौते से ज़्यादा
युद्धक-गठबंधन गए हैं किए होकर ज्यों विक्षिप्त।
आशय यह है कि हर दूसरा सोचता है, हर दूसरा
युद्ध की तैयारी में है लिप्त।
हर वैश्विक युद्ध अपने मक़सद में चुका ही।
यह निर्विवाद सत्य विवादित आया रहा ही।
पहला युद्ध अस्तित्व का युद्ध रहा होगा।
दूसरा युद्ध सुरक्षा का।
तीसरा युद्ध, युद्ध का चलन रखने।
चौथा युद्ध अवश्य बुभुक्षा का।
असभ्यताओं के युद्ध से निकलकर
सभ्यता के लिए लड़े गए होंगे अनगिनत युद्ध।
परिवारवाद, समाजवाद, साम्यवाद, पूँजीवाद
स्थापित करने।
ये सभी कहे गए सभ्य युद्ध।
फिर सभ्य और असभ्य होता रहा आदमी।
इस दौरान ख़ुद को ही खोता रहा आदमी।
क्या? रुकेगा युद्ध, धर्म नष्ट हो तो।
थमेगा युद्ध-जनित विभीषिका
धर्म में निहित अधर्म स्पष्ट हो तो?
युद्ध अब हो गया है धार्मिक।
युद्ध मिटाने के लिए
सभ्यताएँ धूल-धूसरित की गईं कई
संस्कृतियों के संस्कार किए गए परिवर्तित
युद्ध फिर भी रहा किया जीवित।
युद्ध सभ्यता का मनोरंजन-काल है
मुर्गों/साँड़ों की लड़ाई।
युद्ध मानवता का सार्थक-काल है।
मानव बने रहने की ढिठाई।
क्या है युद्ध?
कोई तो हो प्रबुद्ध।
आवश्यकताओं का अर्थशास्त्र।
समानताओं का समाजशास्त्र।
अधिकारों का नाट्यशास्त्र।
अहंकारों का ब्रह्मास्त्र।
सदियों से युद्ध रोकने
संकलित किए गए धर्म;
धर्म की आयतें, श्लोक, मंत्र, कथन
और कथानकों की लंबी शृंखलाएँ
किन्तु, युद्ध अनवरत है।
सदियों से युद्ध रोकने बाँटे गए
आदमी को
क़ौम में, नस्ल में, वंश में, पूजा-पद्धतियों में,
प्रार्थनाओं के शब्दों में
किन्तु, युद्ध जैसे आदमी का व्रत है।
आदमी विजय प्राप्त करने
करता रहता है युद्ध।
हारता रहता है गाँधी और बुद्ध।
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