अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

शहर मेरा अपना

शहर की बातें बेकार नहीं हैं। 
शहर की परिभाषा ग़लत नहीं है। 
नहीं है त्रुटिपूर्ण, शहर का बनना। 
सत्य है शहर। 
शिक्षक है शहर। 
रक्षक है शहर। 
हमें होना ही चाहिए शहर। 
चालाक है शहर। 
सियार का नहीं, बुद्धि का। 
बुद्धिबद्ध है शहर। 
प्रतिबद्ध है शहर और कटिबद्ध भी। 
तुम्हें दुःख से नजात देने के लिए। 
 
तुम शहर बनो। 
शहर कहता है तुम अपना डगर बनो। 
शोषण से मुक्त होने, 
सुशासन से युक्त होने, 
स्व्यंभू संत्रासों से निकलने बाहर, 
नकारने व्यथाओं के सारे झूठे डर। 
  
दुःख शहर नहीं, अपने देते हैं। 
जो देखते तुम वे अबुझ सपने देते हैं। 
शहर कटु है। 
तुम कटु बनो। 
शहर का स्वार्थ उसका सुख। 
तुम सुखी बनो। 
शहर योद्धा है। 
तुम योद्धा बनो। 
शहर के अंदर किन्तु, गाँव का कोमल मन
विद्यमान है। 
तुम कोमल अवश्य बनो। 
  
पीड़ा मन में होती है। 
दुःख तन पर रहता है। 
जब तेरा अधिकार तुझसे छिन जाय
दुःख होता है। 
जब तुम अपने अधिकारों की
रक्षा नहीं कर पाते पीड़ा होती है। 
तुम शहर बनो
डर को डराने। 
अपने को शहर सा लड़ाका बनाने। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

चिन्तन

कविता - हाइकु

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं