कैसे पुरुष हो यार - एक
काव्य साहित्य | कविता अरुण कुमार प्रसाद1 Aug 2020 (अंक: 161, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
ऐश्वर्य पर इठलाते हो।
शौर्य पर
गर्व करते हो।
उत्तरोत्तर
उन्नत होते रहने की
कामना रखते हो।
स्वयं को
समस्त समाज के
शीर्षोत्तम पर देखते रहने की
भावना रखते हो
किन्तु, अति कुटिल।
प्रवीणता से सामर्थ्य नहीं
सामर्थ्य से प्रवीणता बढ़ाने के
ज़िद की चाहना करते हो।
स्वर्ण से चमकते हुए तन को
सौंदर्य का पर्याय–
स्थापित करने को
होते हो कटिबद्ध।
पिता, भाई, पुत्र, मित्र
होने का संकल्प और प्रण
प्रतिपादित करने को
प्रतिबद्ध।
जीवन के आयोजित समारोह में;
पुत्र को सत्य,
पुत्री को मिथ्या।
पुत्र को पौरुषेय,
पुत्री को पौरु।
पुत्र को स्वर्गारोहण का वाहन,
पुत्री को अनैच्छिक वहन।
पुत्र को भविष्य।
पुत्री को भूत का प्रसंग।
ऐ, परूष पुरुष।
पिता का प्रारूप नहीं,
पिता हो, पुरुष।
पुत्रियों के लिए भी
आदर्श की महानता हो,
ईर्ष्यालु पुरुष।
पुत्र को भविष्य का मोहरा।
पुत्री को औज़ार भोथरा।
मानने में
ऋणात्मक सुख से
आत्मविभोर हो तुम।
लीप-पोत कर पुत्र को
दर्शनीय बनाने के जतन
करते हुए;
क्या?
तुम पराये नहीं लगते
पुत्रियों को या ख़ुद को।
काट-छांट कर
पुत्री को छोटा करते हुए,
छोटे हो जाते हो तुम
ऐसा नहीं लगता तुम्हें
पगड़ी पहन महानता के मूँछ उमेठे
पहलवान पुरुष।
विभेद करते रहे
भौतिक भोगों में,
गृह-युद्ध में भी;
पुत्री और पुत्र के।
पक्षपात करते हुए भी
पिता कहे जाते रहे।
जैसे, तैसे
विदा कर
महान बने छत्रधारी।
अपने उसी अंश से भेद
करने को तुम ही नहीं
तत्पर रहे त्रिपुरारी।
पुत्रों के प्रादुर्भाव की कथाएँ।
पुत्रियों के जन्म को छुपाएँ।
सुनसान!
जान लो कि गर्भ
सिर्फ़ गर्व नहीं
गौरव भी जनती रही है।
गौरव पनपने दो
हत्या न करो
गौरव का भ्रूण।
रोपते हुए
आनंद की पराकाष्ठा
भोगते हुए
जनक की भूमिका।
पालक की भूमिका में
क्यों कृपणता?
पुत्र के लिए
पिता की भूमिका
पुत्री के लिए
क्यों नृपता?
कैसे पुरुष हो यार!
वसीयत लिखित, अलिखित
पुत्री ग़ायब।
अतीत का दुहराव।
जनक के रूप में
क्यों है तेरा ऐसा स्वरूप?
कुछ है तेरा जबाब?
नहीं है,
कैसे पुरुष हो तुम यार!
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