सब्ज़ीवाली औरत
काव्य साहित्य | कविता अरुण कुमार प्रसाद1 May 2020 (अंक: 155, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
झेल रही है वह सब्ज़ी की दुकान
बिना चहारदीवारी और छत के।
सह रही है आलू,प्याज़ और
अपनी ताज़गी खोती हुई
दूसरी सब्ज़ियों के गंध।
करती है महसूस
सब्ज़ियों के भाव में
टुच्चे ग्राहकों द्वारा
उसके जिस्म का
उझाला गया भाव।
सब्ज़ीवाली औरत युवा है।
और सब सह लेगी वह
तत्पर है सहने को।
वे सारे विस्तार जो
जो उसके मन, तन, आकार
और स्परूप को शून्य कर दे।
किन्तु, उसके अस्तित्व को
शून्य कर देने वाला
कोई मूल्य नहीं।
कोई शब्द नहीं।
बाट उठा लेती है वह।
बगल वाली दुकान की
वह बुज़ुर्ग महिला
सँभालती है उसे।
समझाती है-
“कानों को बहरा कर ले, रूपमती!
उन शब्दों के लिए
जो तुम्हारे काम के नहीं हैं।
बाट, तनोगी किसके ऊपर?
बाट जोहती दो जोड़ी
निर्दोष, मासूम शैशव आँखों के ऊपर!
या
बीमार आँखों में समाये हुए
ग्लानि और झुँझलाहट से भरी
आँखों के ऊपर!
जो
चौबीस घंटे में दो सौ चालीस बार
माँग रहा होगा मौत।
कहते हुए कि हे ईश्वर,
मुझे इस उहापोह से मुक्त करो।
जिसका हाथ
दिल की गहराइयों से थामा था।
उसे कभी न जीतनेवाले
रण में भेजकर
दु:खी हुए इन्सान की विवशताओं पर
तरस खाओ, सौन्दर्यशालिनी।”
बूढ़ी फेफड़े को नियंत्रित करने के लिए
वह रुकी।
“युग का सत्य यही है बेटी।
दर-भाव, मोल-तोल अंक-मूल्य।
जीव रचना से पहले
सृष्टि के उस ईश्वर ने भूख रची है।
इसके आयाम बदलते हों
किन्तु, यह आदिम और
मूल सत्य है सृष्टि का।
आओ
मैं बताती हूँ,
अपने को बेचने के भाव में
कैसे ख़रीदोगी, ख़रीददार को ही।
स्यार की चालाकी से
अपनी सोच भर ले ऐ मृगनयनी!
आँचल के नीचे अमृत की अजस्र धार
धारण करनेवाली हे आदि नार,
विषकन्या की फुफकार ले भर फूँक में।
जीने के लिए
दो वक़्त की रोटी ही नहीं
कवच भी चाहिए।
ज़िम्मेवारियों की परिभाषाएँ
हो गई हैं ग़लत।
ज़िम्मेवार वह नहीं जो इसे निभाए।
वे हो गये हैं जो
इसका भरम फैलाये।
इस भ्रम में सामन्तवाद की क्षुधा है।
शोषण, दोहन का कठोर सत्य है।
वह रुकी।
इत्मीनान की एक लम्बी साँस ली।
फिर बोली।
“दुकान सजेगी।
प्याज़ की गंध को मोगरे, रजनीगन्धा में
दे बदल - कोयल सी आवाज़ में।
बन कोयल।
कौए की चालाकी धर
उसके ही घोंसले में कर परवरिश।
पुआल की छत को तरसती
तेरी यह दुकान
आलीशान छत के नीचे चमकेगी।
बस भाव अपना करना
पर, बेचना आलू और प्याज़ की
दुर्गन्ध।
ये बस इसी के क़ाबिल हैं।
ख़रीदने निकले नहीं हैं सुगंध।
बस अपना तन और अपना मन
परिणय की पवित्र अग्नि की गोद में
अमानत रख आना, सुहागिनी।”
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