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ग़ज़ल ग़ज़ल में फ़र्क़

 गांधी चौराहे पर उनकी पान की दुकान है| सुबह शाम तो भीड़ रहती ही है पान के शौकीन दिन में भी दुकान को घेरे रहते हैं| यह कहना ज़्यादा मुक़म्मल होगा कि सुबह आठ बजे से खुली दुकान में बैठे चाचा को उनके प्रिय ग्राहक एक सी चाल से पान लगाते हुये देखते हैं| क्यों न हो आखिर पान के साथ साथ गिलोरियों के शौकीनों को उम्दा सी ग़ज़लें भी सुनने को मिलतीं हैं| चाचा पान लगाते लगाते ग़ज़लें कहते हैं और सुनने वाले वाह वाह कर उठते हैं| "इरशाद ", "क्या बात है चाचा", "एक बार फिर से चाचा" जैसे जुमले आसमान में उछलते हैं और चाचा गदगद हो जाते हैं| पानों से अच्छा ग़ज़लों का स्वाद‌ लगता है| इक़बाल ने भले कहा हो सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा किंतु यहाँ तो सारे जहां से अच्छी चाचा की ग़ज़लें ही होती थीं| लोग ने अपनी अपनी ग़ज़लें बना ली थीं "शाम वहाँ मान मिलता है सम्मान मिलता है, चाचा के यहाँ सबसे अच्छा पान मिलता है|" सब चाचा के दीवाने थे| पान और चाचा, चाचा और उनकी ग़ज़लें सारे शहर में केवल यही चर्चे होते| अतिथि साहित्यकारों को क्षेत्रीय साहित्यकार ज़रूर चाचा के पानों के साथ-साथ उनकी ग़ज़लों का रसास्वदन कराते थे|

अचानक एक दिन लोगों ने चाचा को एक राजनैतिक दल के मंच पर बैठा देखा| जहाँ से चुनाव की बातें उछाली जा रहीं थीं, जाति और धर्म की बातें की जा रही थीं| थोड़े-थोड़े संप्रदाय के चर्चे भी हो रहे थे| हिंदु मुस्लिम सिख ईसाई अमीर गरीब सभी सभी पर चर्चा हो रही थी| हालांकि चाचा कुछ बोल नहीं रहे थे बस चुपचाप मंच पर बैठे थे|

शाम को चाचा की दुकान पर फिर जमघट लगा | लोगों ने पान लगाने की गुज़ारिश की | चाचा ने पान लगाये किंतु ये क्या पानों में स्वाद ही नहीं| चाचा ने ग़ज़लें कहीं पर हे भगवान वह पुरानी कशिश गायब थी बिल्कुल भी मज़ा नहीं आ रहा था, नीरस बोर लोग ऊबकर एक-एक कर खिसकने लगे| पानों की तरह ग़ज़लों का स्वाद भी फीका| न मालूम क्यों...............? ग़ज़ल भी वही ग़ज़लकार भी वही फिर भी...................|

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