अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आत्मा की शांति

मुरगी अपने अन्नदाता को मन भर के गालियाँ दे रही; उसका अनष्टि हो जाने का सोच रही थी। 

अन्नदाता ने, दड़बे के बाहर ही चूल्हा सुलगाया और खौलते पानी में अंडे छोड़ दिए, जिनको मुरगी ने भारी प्रसव पीड़ा झेलने के बाद पाया था। चूज़ा या चूज़ी, भाग्य की बात, अपने ही स्वरूप के दर्शन को आतुर थी। 

मुरगे के अचानक ग़ायब हो जाने का दुःख पुराना पड़ चुका था। संतान वियोग में दुःखी मुरगी के रोंगटे खड़े हो गए, गर्म पानी के एहसास भर से। ग़ुस्से में लाल और दुःख में आँसुओं से भीगी, मुरगी की दोनों आँखें दानव अन्नदाता को देख रहीं थीं।

मुरगी ने कहा, "मेरी संतान, पाँव में बंधे बँधन के कारण तुम्हारी माँ तुम्हारी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना भर ही कर सकती है। वरना उस दानव अन्नदाता का अनिष्ट ही कर डालती।"

मुरगी की कुक्कड़ु कूँ की लगातार आवाज़ को अन्नदाता ने सामान्य सी बात समझा।

मुरगी अब अपनी संतान को अन्नदाता के आहार नाल के रास्ते पेट तक उतरता महसूस कर रही थी और संतान की आत्मा की शांति की प्रार्थना भी कर रही थी।

उसी समय अन्नदाता के घर में मेहमान आने पर, जब तक मुरगी समझ पाती, मुरगी की हत्या हो गयी।

अन्नदाता के पेट में जाकर मुरगी अपनी संतान और संतान अपनी माँ की आत्मा की शांति की प्रार्थना कर रहे थे।
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/10/20 09:39 PM

बेहद संवेदनशील विषय

मधु 2021/10/19 03:14 PM

उफ़्फ़! यह पढ़कर क्या कोई इंसान अभी भी मूक जीवों की आत्मा का क्रंदन को अनसुना कर स्वयं की जिह्वा रस को प्राथमिकता देगा?

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता-ताँका

कविता - हाइकु

लघुकथा

सांस्कृतिक कथा

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं