समझौता
कथा साहित्य | लघुकथा राजीव कुमार1 Feb 2021 (अंक: 174, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
महँगाई और मजबूरी ने धनसुख लाल जी की कमर तोड़ दी थी। अपने इकलौते बेटे को पढ़ाने-लिखाने में उन्होंने कोई समझौता नहीं किया, मजबूरी के आगे भी कभी घुटने नहीं टेके।
उनके बेटे ने जब पत्रकारीता की राह चुनी तो धनसुख लाल जी ने कहा था, "बेटा कोई ऐसी पढ़ाई करो, जिसमें तुरंत काम-कमाई होने लगे।"
दर्शन ने जवाब में कहा था, "पापा, मेरी अभिरुचि इसी क्षेत्र में है।" बेटे की ज़िद के आगे पिता की ज़िद नहीं चली।
वर्षों तक सिर्फ़ अपनी जेब खर्च निकाल पाने की घोर स्थिति में देखकर पिता को घोर निराशा हुई। दर्शन अपना पछतावा ज़ाहिर भी नहीं कर पा रहा था।
फिर अचानक एक दिन शायद जादू की छड़ी दर्शन के हाथ लग गई। कुछ ही दिनों में कार-बँगला हासिल कर लिया।
धनसुख लाल जी अपने बेटे की सफलता पर बहुत ख़ुश थे, मगर हड्डी उनके गले नहीं उतर रही थी। उन्होंने पूछा और स्वर्गवासी पत्नी की क़सम देकर पूछा तो दर्शन ने बताया " बस ’छापना’ है और ’छुपाना’ है।
"छापना तो समझ में आता है मगर छुपाना?" धनसुख लाल जी के चेहरे पर आश्चर्य की छाया स्पष्ट प्रतीत हो रही थी।
"छापना है अफ़वाहों को और छुपाना है तथ्यों को। अभी तो सत्ता पक्ष ही काम ले रही है, जिस दिन विपक्षी पार्टी मेरे इस हुनर की क़ायल हो जाएँगी, उस दिन मेरा मुक़ाम कुछ और ही होगा," दर्शन ने समझाया और कार का काला शीशा ऊपर चढ़ा लिया। धनसुख लाल जी बेटे की इस समझौता पर चिन्तित हो गए।
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