अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ऑफ़िशियल विज़िट

नए पदाधिकारी का पहला ऑफिसीयल विज़िट था। उनको अपने सारे कर्मचारियों से इन्टरेक्ट करना था। सारे कर्मचारी ऑफ़िसर की आवाभगत में लगे हुए थे। किसी को ख़ुद का ट्रान्सफर रुकवाना था तो किसी को अपना प्रमोशन करवाना था। सारे कर्मचारी सज-धज कर आए थे। सिनीयर कर्मचारी ने अपना लेपटॉप ऑन किया और पदाधिकारी से बोले,  "देखिये सर, मेरा परर्फ़ोमेन्स रिकॉर्ड बहुत अच्छा है। सारे कर्मचारियों का एटेनडेन्स भी पूरा-पूरा है।"

विज़िट पर आये पदाधिकारी ने टाइपिस्ट अंजली की तरफ़ देखकर बोले, "वेरी गुड। आई लाईक ईट।"

लंच और डिनर का भी अच्छा प्रबंध किया गया था, सारे कर्मचारियों ने मिलकर सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया, कविता-पाठ, नाच-गाना सब कुछ था। पदाधिकारी का पूरा ध्यान टाइपिस्ट अंजली पर ही था। चपरासी नीलकमल ने पदाधिकारी को फोन पर बात करते सुना कि "इंतजाम कुछ ख़ास नहीं था।" पदाधिकारी की नज़र चपरासी पर पड़ते ही वो सकपका गए और चपरासी भी डर गया। चपरासी ने डरते हुए पूछा, "क्या साहब? मेरा हाँ, मेरा नहीं।" प्रश्न चपरासी के गले से बाहर नहीं आ पाया। 

पदाधिकारी ने आँख मारते हुए कहा, "कुछ हो सकता है तो जुगाड़ करो।"

चपरासी ने जवाब दिया, "मुश्किल है, फिर भी कोशिश करता हूँ।"  बोलकर बाहर चला गया।

सारे नए-पुराने यह जानकर हैरान हैं कि प्रमोशन सिर्फ़ चपरासी और टाइपिस्ट का ही क्यों हुआ? 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता-ताँका

कविता - हाइकु

लघुकथा

सांस्कृतिक कथा

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं