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चला गोली 

इतिहास में सभी कुछ लिखा हो, भला ऐसे कैसे मुमकिन हो सकता है? वैसे भी लेखक आज तक उन्हीं के बारे में लिखते रहे हैं जिनका समाज में वर्चस्व रहता है। फिर भला हमारे छह दादाओं में सबसे छोटे दादा स्वर्गीय श्री केदार दत्त जी के बारे में कोई क्यों लिखता? 

आज के ज़िला पौड़ी गढ़वाल और तत्कालीन ब्रिटिश गढ़वाल में यमकेश्वर नामक स्थान पर ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ बीसवीं सदी के दूसरे दशक में नारे लगाने वाले लोगों में सबसे ऊँची आवाज़ सुना है, उन्हीं की थी। जब अँग्रेज़ सरकार के एक सिपाही ने उन्हें बन्दूक की नली दिखाकर डराने की कोशिश की तो उन्होंने अपनी मिर्जई (एक तरह का कुर्ता) के बटन खोलकर अपना सीना दिखाते हुए कहा था, “डराता क्यों हैं; चला गोली।” 

ख़ैर, गोली तो नहीं चली लेकिन उनकी हिम्मत देखकर वहाँ मौजूद अँग्रेज़ अधिकारी ने उन्हें फ़ौज में भर्ती होने की सलाह दी जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था। मैंने उन्हें कभी नहीं देखा क्योंकि मेरे जन्म से पहले ही वे दुनिया से विदा हो गए थे। अपने गाँव में पुराने लोगों से मैंने कोई साठ-पैंसठ वर्ष पूर्व यह क़िस्सा सुना था। सोचता हूँ भारत की आज़ादी में ऐसे लाखों 'केदार दत्त' ने अपना कर्तव्य निभाया होगा जिनका नाम किसी भी ऐतिहासिक दस्तावेज़ में दर्ज नहीं है। 

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