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अमीरियत

 

एक क़िस्सा तब का है जब मैं उम्र के चौथे दशक के उत्तरार्द्ध में था। मेरे एक मित्र डॉ. टी.ऐन. उपाध्याय और मैं तब दिल्ली कैंट में अवस्थित अपने संस्थान डिफ़ेंस इंस्टिट्यूट ऑफ़ फिजियोलॉजी एंड अलाइड साइंसेज़ से एक दिन लंच में साथ बाहर निकले तो पास के पोस्ट ऑफ़िस में हमारी मुलाक़ात एक ऐसे भारतीय मूल के युवा साधु से हुई जो केन्या से कुछ दिन के लिए भारत आए थे और पास के सनातन धर्म मंदिर की धर्मशाला में ठहरे हुए थे। उनसे बातचीत करते हुए हम पोस्ट ऑफ़िस से निकल कर धर्मशाला पहुँचे तो पता चला कि वे हस्तरेखाविद् हैं। 

डॉ. उपाध्याय ने उन्हें मेरा हाथ देखने के लिए कहा। उन्होंने मेरा हाथ देखते ही कहा, “आप बहुत अमीर हैं।” 

यह सुनकर मुझे हँसी आई और मैंने उन्हें बताया कि मेरे पास बैंक में मुश्किल से डेढ़-दो हज़ार रुपये होंगे और मेरे पास न कोई वाहन है और न कोई ज़मीन-मकान। 

वे मुस्कुराते हुए बोले, "आपने अमीर तबीयत पाई है। आपके पास कुछ न हो तो भी आप स्वभाव से जीवन भर अमीर रहेंगे।” 

मैंने विवाद नहीं किया। इतना ज़रूर है कि ऑफ़िस में किसी भी सहकर्मी ने यदि कभी मेरे से सौ-दो सौ रुपये माँगे तो मैंने कभी न नहीं की। शायद इसके पीछे मेरी वह अमीरियत थी जिसको उन महाशय ने मेरे हाथ के लकीरों में देखा था। 

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