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वापसी

 यह सच था कि सुकेश स्कूली ज़माने के अपने उस प्यार को कभी न भुला पाया जिसे कुछ लोग महज़ किशोरावस्था का चलताऊ आकर्षण मानते हैं। उसने मन्नू को दिल से चाहा था और उसे पाने के सपने सँजोये थे। ख़ैर, मन्नू के लिए प्यार मतलब तब सचमुच वही था जैसा आम लोग सोचते हैं। फलस्वरूप, एक दिन मन्नू खुशी-खुशी बाबुल की दुआएँ लेकर किसी पराये की दुल्हन बनकर विदा हो गयी। 

कुछ वर्षों बाद उसने भी अपनी गृहस्थी बसा ली। पत्नी के रूप में उसे सुरेखा मिली। सुरेखा ने उसके बिखरे जीवन को सँवारने में कोई कोर-कसर न छोड़ी। फलस्वरूप, वह जीवन में सफलता के पायदानों पर चढ़ता चला गया। 

यही कोई पंद्रह वर्ष बाद एक दिन उसे मन्नू का फोन आया। पता चला कि मन्नू अब एक तलाक़शुदा औरत जैसा जीवन बिता रही है। न जाने क्यों, उसके दिल के किसी कोने में वह प्रेम की बाती फिर से प्रज्ज्वलित हो उठी जिसे मन्नू आराम से बुझा गयी थी। वह और मन्नू अब जब-तब फोन पर पुराने दिनों को याद करने लगे। यही कोई दो महीने बाद मन्नू ने उसे जब किसी जगह मिलने के लिए बुलाया तो वह इंकार न कर सका। नियत दिन पर मन्नू से मिलने के लिए किसी बड़े काम का बहाना बनाकर जब वह घर से निकलने लगा तो रोज़ की तरह सुरेखा ने उसे दही-चीनी खिलाते हुए कहा, "आराम से जाइए। जिस काम के लिए जा रहे हैं, वह ज़रूर सफल होगा।” 

सुकेश कुछ सोचते हुए घर से तो निकल पड़ा लेकिन पास के मेट्रो स्टेशन से वह वापस घर लौट आया। वह समझ चुका था कि इस अटपटी प्रेम कथा को यूँ आगे बढ़ाना किसी के लिए भी श्रेयस्कर नहीं होगा। 

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