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मैं डिफ़ेंस इंस्टिट्यूट ऑफ़ फिजियोलॉजी एंड अलाइड साइंसेज़, दिल्ली में लगभग तीस वर्ष तक जिस ग्रुप में रहा, उसे कार्डिओ-रेस्पिरेटरी ग्रुप कहते हैं। वक़्त के साथ मुझे फेफड़ों की क्षमता जाँचने का अच्छा अनुभव हो गया था। ऐसे मौक़े भी आए जब कुछ बड़े लोग बड़ी सिफ़ारिश लेकर हमारे ग्रुप में आते थे। मैं हमेशा ऐसे लोगों से यही कहता था कि आपको यहाँ फेफड़ों की जाँच कराने के लिए किसी सिफ़ारिश की ज़रूरत नहीं है। मैं झुग्गी से आने वाले व्यक्ति की भी उतनी ही गंभीरता से जाँच करता हूँ जितनी सरकार में बैठे किसी प्रभावशाली व्यक्ति की। वजह साफ़ है। ये सभी उपकरण जनता के पैसे से ख़रीदे गए हैं और मुझे भी वेतन उन्हीं के पैसे से मिलता है। 

उदाहरण अनेक हैं लेकिन यहाँ एक का उल्लेख कर रहा हूँ। दो दशक पुरानी बात है। जो महिला अपने फेफड़ों की क्षमता की जाँच कराने हमारे संस्थान में आई थी, उनके पति प्रिंट मीडिया में शीर्ष पदों पर रह चुके थे। वे राज्यसभा सांसद भी रहे और राजदूत भी। 

ख़ैर, उन दिनों भी वे एक महत्त्वपूर्ण पद पर थे। वे जब आई तो उनके साथ एक टीवी एंकर थे। वे एक ब्रिगेडियर साहब का रेफ़रेंस लेकर आई थी। तब मैंने उनसे कहा था, “मैडम, जब आप अगली बार आयें तो किसी रेफ़रेंस की ज़रूरत नहीं।” 

आज वे मैडम और उनके पति, दोनों स्वर्गवासी हो चुके हैं। जो बड़े-छोटे वाला भाव रखता है, वह आजीवन ग़ुलाम रहता है। आज़ाद आदमी को क्या फ़र्क़ पड़ता है कि कोई क्या है? वह तो एक संत की मानिंद सिकंदर से भी धूप की तरफ़ इशारा करते हुए यही कहेगा, “सामने से हट जाओ; ख़ुदा की नियामत को आने दो।” 

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