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चकोर की पुस्तक

यह क़िस्सा युवावस्था में पढ़ा था। लेखक कौन था, यह याद नहीं। किरदारों के नाम भी याद नहीं। 

ख़ैर, क़िस्सा यूँ है। छपास के मर्ज़ से संक्रमित किसी अ ब स को पुस्तक लिखने की सूझी। उन्होंने अपने एक मित्र से सलाह ली। मित्र ने कहा, “लिखने से पहले अपना उपनाम रखो।” 

उन्होंने तत्काल अपना उपनाम चकोर रखा और फिर अगले कुछ दिनों में एक उपन्यास लिख डाला। उसका नाम रखा, “विरह की वेदना”।

इसके बाद उन्होंने अपने जेब से प्रकाशक को पंद्रह हज़ार रुपए दिये और दो सौ प्रतियाँ छपवा दीं। प्रकाशक उनका परिचित था। उन्होंने पुस्तक के विक्रय की ज़िम्मेदारी प्रकाशक को कुछ प्रतिशत लाभांश देने का वादा करके सौंप दी। 

कोई छह महीने बाद प्रकाशक ने उन्हें बताया कि अभी सिर्फ़ दो प्रतियाँ बिकी हैं और सलाह दी कि वे जम्मू से त्रिवेंद्रम की यात्रा पर जाएँ और हर स्टेशन पर उतर कर एएच व्हीलर बुक स्टोर्स से कहें कि उन्हें चकोर की “विरह की वेदना” पुस्तक चाहिए। इससे पुस्तक चर्चित हो जाएगी। 

उन्होंने ऐसा ही किया लेकिन जम्मू से नई दिल्ली तक उन्हें कहीं भी अपनी पुस्तक नहीं मिली। जिस स्टेशन पर भी पूछा, यही जवाब मिला, “कौन चकोर? हम न चकोर को जानते हैं और न उसकी किताब को।” 

तब चकोर स्वयं ही उनसे कहते कि चकोर एक प्रतिष्ठित लेखक हैं और उन्हें उनका उपन्यास अपने स्टोर्स में रखना चाहिए। 

बहरहाल, नई दिल्ली स्टेशन पर जब उन्होंने व्हीलर बुक स्टोर्स के विक्रेता से पूछा तो उसने भी पहले तो वैसा ही जवाब दिया लेकिन फिर कुछ सोचते हुए कहा, “रुकिए! मैं देखता हूँ।” फिर उसने एक ढेर से दो प्रतियाँ खोज कर उन्हें पकड़ाते हूए कहा, “ये लीजिए विरह की वेदना।” 

चकोर ख़ुश होते हुए बोले, “मुझे एक प्रति चाहिए; कितने पैसे दूँ?”

वह विक्रेता बोला, “आप दोनों प्रतियाँ फ़्री में रखिए। इन पर धूल जम गई है और वैसे भी ऐसी पुस्तक कौन ख़रीदेगा जिसमें हर पन्ने पर ग़लतियाँ हों।” 

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