असली वज़ह
कथा साहित्य | लघुकथा सुभाष चन्द्र लखेड़ा7 Feb 2014
बढ़ती उम्र के साथ न जाने क्या हुआ श्रीमती मालती को सीधी सपाट सड़क पर भी ठोकरें लगने लगी हैं । दरअसल, मालती जी अपनी सोसाइटी में रहने वाले चकोर जी की पत्नी हैं। सुबह-शाम चकोर जी जब मालती जी के साथ यही कोई दो-तीन किलोमीटर की "पद यात्रा" पर घूमने निकलते थे तो बार-बार हिदायत देते रहते थे - "भई, संभल के; देखो यहाँ पर सड़क पर छोटा सा गड्ढा है। देख कर कदम रखना, कहीं मोच न आ जाए। ये देखो! ये केले का छिलका पड़ा हुआ है; फिसले तो समझो फिर पैर गया।"
गाहे - बगाहे चकोर जी का जो भी परिचित कभी उनके उनके बाजू से गुज़रता था, उनकी हिदायतें सुनकर उसे यही महसूस होता था कि देखो सत्तर वर्ष की दहलीज़ पर खड़े चकोर जी आज भी अपनी पत्नी का कितना ख्याल रखते हैं? लेकिन उस रोज़ जो कुछ हुआ, उससे चकोर जी के इस सरोकार की असली वज़ह पर से पर्दा उठ गया। दरअसल, चकोर जी और मालती जी यहीं पास वाले बाज़ार की तरफ जा रहे थे और मैं बाज़ार से वापस आ रहा था। जैसे ही मैं उन दोनों के बिलकुल सामने पहुँचा, अचानक श्रीमती मालती एक केले के छिलके पर रपटते हुए धड़ाम से गिर पड़ी। आनन-फानन में मैंने और चकोर जी ने उन्हें उठाया तो पता चला कि संभवतया उनकी दायीं टाँग की हड्डी चटक गई है। तभी चकोर जी भन्नाते हुए मालती जी से बोले, "देख के चलना तो तुमने सीखा नहीं। अब बैठे-बिठाए अपनी बेवकूफी से तुमने मेरा कम से कम चार-पाँच हज़ार का नुकसान तो करवा ही दिया।"
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