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कम्बल का मोह! 

यह लोककथा मैंने बचपन में अपने पिता जी से सुनी थी। पंचतंत्र के विष्णु शर्मा जी की तरह जाने-अनजाने वे मुझे उम्र के उस दौर में बहुत कुछ ऐसा समझा गए जिसका प्रभाव आजीवन बना रहता है। ख़ैर, पिता जी के शब्दों में इस कहानी को बयान करूँ तो एक बार दो फ़क़ीर किसी बर्फ़ानी रास्ते से गुज़र रहे थे। सयोंगवश, वे रास्ता भटक गए और उन्हें वह सर्द रात उस निर्जन पहाड़ी क्षेत्र में बिताने के लिए विवश होना पड़ा। सामान के नाम पर उनके पास दो कमंडल और दो ऊनी कम्बल थे। 

रात को फिर बर्फ़ गिरने से ठण्ड यकायक बढ़ गयी तो एक फ़क़ीर ने दूसरे फ़क़ीर से कहा कि ठण्ड से हम अपना बचाव तो कर सकते हैं किन्तु इसके लिए हमें अपने ऊनी कम्बल जलाने होंगे। ऊन धीरे-धीरे जलेगी और हम आग तापते हुए रात बिता लेंगे। दूसरे फ़क़ीर को यह सलाह नागवार गुज़री और उसने ग़ुस्सा होते हुए कहा, “मुझे अपना कम्बल जान से प्यारा है। मैं इसे नहीं जला सकता। तुम्हें अपना कम्बल जलाना है तो जलाओ लेकिन मैं तुम्हारे पास भी नहीं फटकूँगा।” 

यह कहकर वह आगे चला गया। पहले फ़क़ीर ने कुछ देर बाद अपनी कम्बल को इस तरह से जलाया कि वह धीरे-धीरे सुलगते हुए गर्मी देता रहा। उसने साथी फ़क़ीर को आवाज़ दी किन्तु वह आग तापने नहीं आया। 

सुबह हुई तो यह फ़क़ीर अपने साथी को खोजते हुए आगे बढ़ा। उसने देखा उसका साथी एक पेड़ के नीचे कम्बल लपेटे लेटा है। जब वह निकट पहुँचा तो उसने देखा कि उसका साथी मर चुका था। उसने उसकी निर्जीव देह को पास के एक गड्ढेनुमा जगह में दफ़ना दिया और उसके कम्बल को अपने कंधे पर डालकर वहाँ से अपने कभी न ख़त्म होने वाले सफ़र पर चल पड़ा। 

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