भाई चारा
कथा साहित्य | लघुकथा सुभाष चन्द्र लखेड़ा1 Oct 2013
भाई चारा का सही अर्थ मेरी समझ में तब आया जब मुझे अभी कुछ दिन पहले किसी कार्यवश उस कसबे में जाना पड़ा जहाँ मैं आज से पचास वर्ष पहले रहता था। दरअसल, वहाँ मुझे अपने एक ऐसे मित्र के यहाँ ठहरना पड़ा जिससे मेरी मित्रता उस वक़्त से है जब हम अपनी स्कूली शिक्षा ले रहे थे। ख़ैर, कार्य पूरा होने में लगभग एक सप्ताह का समय लगा। मेरी मित्र के तीन भाई हैं; एक बड़ा और दो छोटे। ख़ैर, उनका सबसे बड़ा भाई एक शातिर किस्म का इंसान है और विरासत में मिली ज़मीन-जायदाद को लेकर जब-तब विवाद करता रहता है। दूसरा भाई यानी मेरा मित्र एक कुशल व्यापारी होने के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में रचि रखने वाला साहित्यिक प्रवृति का नेक इंसान है। तीसरा भाई पारिवारिक कूटनीति की काफी समझ रखता है लेकिन आर्थिक रूप से कमज़ोर है। चौथा भाई एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापक है और एक सीधा-सादा इंसान है। सबसे बड़ा भाई दूसरे भाई की प्रगति से ईर्ष्या करता है। इतना ही नहीं, छोटी-छोटी बातों को लेकर गाली-गलौज करने लगता है। तीसरा भाई इस सबसे बड़े भाई का इस्तेमाल अपने व्यापारी भाई पर दबाव बनाने के लिए करता है। वह जब-तब अपने व्यापारी भाई से मदद लेता रहता है। जब कभी इस मदद में कमी होती है, वह सबसे बड़े भाई के साथ अधिक दिखने लगता है। कुल मिलाकर, व्यापारी भाई को अपने इस भाई को साथ रखने के लिए उसे जब-तब धन रूपी चारा देना पड़ता है। इतना ही नहीं, बाबा भैरों में आस्था रखने वाले बड़े भाई को भी उसे यदाकदा "दारू" का भोग लगाना पड़ता है।
बहरहाल, मुझे इस बात की ख़ुशी है कि उस एक सप्ताह के प्रवास ने मुझे "भाई चारा" का सही अर्थ समझा दिया। "भाई चारा" बना रहे, इसके लिए आज के ज़माने में गैरों को नहीं, अपने सगे भाइयों को भी चारा देना पड़ता है।
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