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गुरुदेव!   

बीसवीं सदी के सातवें दशक में बनी उस हिंदी फ़िल्म में उस समय के हिसाब से कुछ बोल्ड सीन थे। हमारे क़्स्बे में एक सिनेमा हाल था। मुझे उन दिनों फ़िल्में देखना बहुत पसंद था लेकिन उस ज़माने में छात्रों का सिनेमा देखना एक भली बात नहीं मानी जाती थी। हमें हिंदी पढ़ाने वाले अध्यापक उन छात्रों को बहुत डाँटते थे जो फ़िल्में देखने के शौक़ीन थे। 

ख़ैर, उस दिन क़्स्बे के उस सिनेमा हाल में वह फ़िल्म लगी थी जिसकी चर्चा में ऊपर कर चुका हूँ और उस दिन हिंदी के उन गुरुदेव ने हमें कक्षा में यह अच्छी तरह से समझा दिया था कि ऐसी फ़िल्में हमारे समाज को बरबाद कर देंगी। उनका कहना था कि ऐसी फ़िल्मों का बहिष्कार किया जाना चाहिए। बहरहाल, मैं भला कहाँ रुकने वाला था। मैंने रात को दस बजे से शुरू होने वाले शो को देखने का इरादा बनाया। मैंने जब सिनेमा हाल में प्रवेश किया तो फ़िल्म शुरू हो चुकी थी। अंदर अँधेरा था और गेटकीपर की मदद से मैं अपनी सीट पर पहुँचा।

यही कोई डेढ़ घंटे बाद इंटरवल हुआ और हाल रोशनी से जगमगा उठा। मैंने सीट से खड़े होते हुए बायीं तरफ़ और मेरे बायीं तरफ़ बैठे दर्शक ने खड़े होकर दायीं तरफ़ देखा तो हम दोनों को समझ नहीं आया कि एक–दूसरे से क्या कहा जाए? मेरे बायीं तरफ़ मेरे हिंदी के गुरुदेव थे और उनकी दायीं तरफ़ मैं!

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