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दस रुपए का एक भुट्टा

गर्मी की भरी दोपहरी में, 
सड़क किनारे बैठी वह फुटपाथ पर भुट्टा भून रही थी, 
जलती अग्नि में कोयले तप रहे थे, 
हाथ वाला पँखा कर अग्नि में, 
कोयलों को और तपा रही थी, 
तन बदन पसीने से नहा रहा था उसका, 
तपते सूरज की गर्मी के साथ साथ, 
तपिश अग्नि की असहनीय थी, 
मगर उसके लिए तो यह रोज़ की बात थी, 
आदी था उसका शरीर इस भीषण गर्मी का, 
गर्मी सर्दी या हो बरसात, 
उसकी तो यही रोज़ी रोटी थी, 
कुछ ऐसे भी लोग थे वहाँ, 
जो अपनी ‘एसी’ गाड़ियों में बैठे थे, 
गाड़ी का शीशा ज़रा-सा नीचे कर, 
भुट्टे का ऑर्डर दे रहे थे, 
ना जाने उन्हें किस बात की जल्दी थी, 
बहुत बेसब्र दिख रहे थे यह गाड़ी वाले, 
मगर वह अपने भुट्टे भून रही थी, 
भून कर भुट्टे पर निम्बू मसाला लगा रही थी, 
कौन खड़ा है कितनी देर से, 
इस बात से वह नहीं थी बेख़बर, 
चाहे हो कोई गाड़ी वाला, 
या हो कोई अपनी साइकिल रोककर खड़ा, 
उसके लिए सभी थे बराबर एक समान, 
एक आत्मविश्वास झलक रहा था उसके चेहरे पर, 
सभी के लिए था उसके भुट्टे का एक ही मोल, 
दस रुपए का एक भुट्टा, 
गर्मी की भरी दोपहरी में। 

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