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कुछ बच्चों का बचपन 

कुछ बच्चों का बचपन ऐसा भी होता है, 
तरसता है रोटी के दो टुकड़ों को, 
कचरे से रोटी बीन कर खाता है, 
कहाँ मिलता है उन्हें खाने को पिज़्ज़ा बर्गर, 
बचपन उनका तो रोटी के चंद टुकड़ों को भी, 
तरस जाता है, 
सुबह तो उनकी भी होती है, 
कभी कभी तो भूखे पेट ही दिन ढल जाता है, 
हो जाती है रात, 
बचपन बेचारा पानी पीकर सो जाता है, 
कभी मिल जाती बासी मिठाई रूखे सूखे पकवान, 
बचपन उनका ख़ुश हो जाता है, 
नाच नाच कर चलता है ऐसे, 
मिल गया हो कुबेर का ख़ज़ाना जैसे, 
दुख दर्द सब भूल जाता है, 
बासी मिठाई पकवान स्वाद ले-ले कर खाता है, 
कहाँ नसीब होते हैं उन्हें महँगे सस्ते खिलौने, 
उनका बचपन तो गली मोहल्लों से, 
ढूँढ़ ढूँढ़ कर टूटी फूटी बोतलों, 
घिसे पुराने टायरों से खेलता है मौज मनाता है, 
फटे कपड़ों में घूमता है मिट्टी में लोटता है, 
बचपन उनका कभी हँसता कभी रोता है, 
बस यूँ ही बड़ा हो जाता है बीत जाता है, 
उनका मासूम बचपन, 
कुछ बच्चों का बचपन ऐसा भी होता है। 

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