महानगरों में बने घर बड़े बड़े
काव्य साहित्य | कविता मंजु आनंद1 Mar 2022 (अंक: 200, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
महानगरों में बने घर बड़े बड़े,
घर कम होटल ज़्यादा लगते हैं,
सुख सुविधाओं से सुसज्जित
आलीशान हैं यह अंदर से,
मगर घर न होकर क़ैदख़ाना लगते हैं,
खिड़कियाँ रहती हैं बंद,
बंद इनके दरवाज़े रहते हर वक़्त,
ताज़ी हवा अंदर आ नहीं सकती,
आवाज़ किसी की बाहर जा नहीं सकती,
घर में रहने वाले भी मेहमानों की तरह रहते हैं,
सबका अपना-अपना अलग कमरा होता है,
सभ्य समाज में आजकल इसे प्राईवेसी कहते हैं
हर कोई अपने में ही खोया रहता है,
मुझे फ़ुर्सत नहीं अभी,
हर कोई बस यही कहता है,
घर में अपनों से अधिक
यारों दोस्तों का जमघट लगा रहता है,
शानो-शौकत, दिखावा प्रथम श्रेणी में रहता है,
देख कर रुतबा हैसियत सामने वाले की,
उसका आदर-सत्कार किया जाता है,
बड़े बड़े घरों में ऐसा ही होता है,
महानगरों में बने घर बड़े बड़े।
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