हँसी कहाँ अब आती है
काव्य साहित्य | कविता मंजु आनंद15 Jan 2022 (अंक: 197, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
माना की हँसने पर कोई टैक्स नहीं चुकाना पड़ता,
पर हँसी कहाँ अब आती है,
यूँ ही बेवजह छोटी-छोटी बातों पर,
हँसते थे अक़्सर हम भी खुलकर,
अब तो वज़ह होने पर भी,
यह कम्बख़्त हँसी ना जाने कहाँ भाग जाती है,
चाहे चले जाएँ किसी भी लाफ़्रट क्लब में,
असली हँसी तो केवल खुले मन से ही आती है,
अब तो यह आलम है,
खुल कर हँसना तो भूल ही गए हैं जैसे,
बस बनावटी हँसी ही हँस लेते हैं जैसे-तैसे,
ना मालूम हँसे थे कब खिलखिला कर,
अब हँसे इस तरह तो बेअदबी कहलाती है,
भींच के होंठों को अपने,
अब हल्का-सा मुस्कुरा देते हैं,
ऐसी ही फीकी मुस्कान,
शायद अब हँसी कहलाती है,
माना की हँसने पर कोई टैक्स नहीं चुकाना पड़ता।
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Dr Padmavathi 2022/01/15 08:50 PM
बिलकुल सही कहा आपने । कृत्रिमता का जामा ओढ़े औपचारिकताओं को निभाने के लिये जिया जा रहा यांत्रिक जीवन जिसमें हंसी अपनी नैसर्गिक पहचान खो चुकी है । बहुत सुंदर । अब न मुस्कान है न हंसी । सायास प्रयास करना पड़ता है हंसने के लिए ।