सर्कस का जोकर
काव्य साहित्य | कविता मंजु आनंद15 Dec 2021 (अंक: 195, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
सर्कस का जोकर,
पहन कर रंग-बिरंगी पोशाक,
लगाकर मुखौटा हँसी का,
दर्शकों को हँसा रहा था,
आढ़े-तिरछे घूम-घाम कर,
तरह-तरह के करतब दिखला रहा था,
पहन सर पर तिकोनी झालरदार टोपी,
मुंडी अपनी हिला रहा था,
अपनी नाक पर लगाकर नक़ली नाक,
आँखें अपनी गोल-गोल घुमा रहा था,
सर्कस का वह जोकर सबका मन बहला रहा था,
नहीं था सरोकार किसी को कितना वह थक गया था,
लगा रहे थे दर्शक कहकहे,
ख़ुश होकर ताली बजा रहे थे,
दर्द वह अपना सभी से छुपा रहा था,
काम था उसका सबका मनोरंजन करना,
काम अपना बख़ूबी वह करता जा रहा था,
क्योंकि वह था सर्कस का जोकर,
यह दुनिया भी एक सर्कस है,
हर शख़्स यहाँ है सर्कस का जोकर।
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