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दो जून की रोटी

एक मेहनत कश ग़रीब इंसान, 
होता है जिसका केवल एक ही लक्ष्य, 
करते जाना बस काम केवल काम, 
होते ही सुबह निकल पड़ता है लेकर अपना झोला, 
कमाने दो जून की रोटी वह इंसान, 
ना जाने कितनों के आगे फैला कर हाथ काम माँगता है, 
कितने ही लोगों की जली कटी सुनता है, 
ना चाहते हुए भी कितनों की हाँ में हाँ मिलाता है, 
बहुत मजबूर हो जाता है जब, 
कभी कभी गिरवी रख देता है अपना स्वाभिमान, 
करे भी तो वह क्या करे, 
कैसे भी हो उस ग़रीब इंसान को तो, 
कमानी ही है दो जून की रोटी हर हाल में, 
चलता है उसका सारा परिवार, 
केवल उस अकेले की कमाई से, 
कमा कर थक हार कर ले आता है दो पैसे अगर साँझ ढले, 
तब कहीं जाकर उस ग़रीब के घर का चूल्हा जलता है, 
परिवार उसका दो जून की रोटी खा पाता है, 
ज़्यादा ना सही थोड़ा-सा सुकून तो, 
उस मेहनत कश ग़रीब इंसान को मिल ही जाता है, 
होते ही सुबह फिर लेकर अपना झोला, 
निकल पड़ता है वह अपने काम पर, 
या फिर काम की तलाश में, 
उसे तो हर हाल में कमानी ही है, 
दो जून की रोटी अपने परिवार के लिए, 
एक मेहनत कश ग़रीब इंसान। 

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