जितनी हो चादर
काव्य साहित्य | कविता मंजु आनंद15 Dec 2021 (अंक: 195, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
जितनी हो चादर उतने ही फैलाओ तुम पाँव,
मत दिखाओ तुम झूठी अपनी शान,
क्या मिलेगा तुम्हें झूठी वाहवाही से,
क्यों करते हो मन को अपने तुम अशांत,
क्या कहेंगें लोग . . .
यही सोच कर परेशान हो जाते हो,
लोगों का क्या है लोगों का काम है कहना,
खाएँगे, पीएँगे, और घर को लौट जाएँगे,
कुछ लोग तुम्हारी झूठी तारीफ़ों के पुल भी बाँधेंगे,
हैं यह दुधारी तलवार के जैसे,
मुँह पर मीठे, पीठ पर ज़हरीला ख़ंजर चुभाएँगे,
इच्छाओं का क्या है वह तो बढ़ती ही जाती हैं,
नहीं लेती ख़त्म होने का कभी नाम,
व्यक्ति को क़र्ज़ के बोझ तले दबाती हैं,
मन पर तुम अंकुश रखो,
खींच लो मन की लगाम,
जितनी हो चादर उतने ही फैलाओ तुम पाँव।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अपनी कुछ किताबों में
- अब आगे क्या होगा
- आँसू
- आईना
- आज फिर
- इंसान क्या है
- उम्र
- उम्र का यह दौर भी . . .
- एक गृहणी
- एक पेड़ था कभी हरा भरा
- एक बूढ़ा इंसान
- एक फ़क़ीर
- कन्यादान
- कबाड़ी वाला
- कविता
- कुछ बच्चों का बचपन
- कैसे जी रहा है
- गोल गोल गोलगप्पे
- चिड़िया
- जितनी हो चादर
- जीवन की शाम
- ढूँढ़ती हूँ भीड़ में
- दस रुपए का एक भुट्टा
- दिल तू क्यूँ रोता है
- दो जून की रोटी
- नया पुराना
- पिता याद आ जाते हैं
- पीला पत्ता
- प्यार की पोटली
- बाबा तुम्हारी छड़ी
- बिटिया
- बिटिया जब मायके आती है
- बूढ़ा पंछी
- मनमौजी
- महानगरों में बने घर बड़े बड़े
- माँ को याद करती हूँ
- माँ मेरे आँसुओं को देखती ही नहीं पढ़ती भी थी
- मायका
- मायाजाल
- मेरा क्या क़ुसूर
- वो दिन पुराने
- सर्कस का जोकर
- सुन बटोही
- हँसी कहाँ अब आती है
- हर किसी को हक़ है
- ख़्वाहिशें
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं