अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अप्रत्याशित

मुझे एक ज़रूरी बैठक में भाग लेने हेतु शताब्दी एक्सप्रेस से देहरादून जाना था। यह गाड़ी दिल्ली से सुबह 6:50 पर चलती है और दोपहर 12:40 बजे देहरादून पहुँचती है। बैठक उसी दिन 2 बजे थी, इसलिए मैं निश्चिंत था कि मैं सही समय पर पहुँच जाऊँगा। मैंने एक टैक्सी स्टैंड से यही कोई सुबह साढ़े पाँच बजे टैक्सी भेजने को कहा और देहरादून के अपने कार्यक्रम को पूरी तौर से सुनिश्चित कर लिया था। बहरहाल, जब नियत समय पर टैक्सी नहीं आई तो मैंने यही कोई पौने छह बजे टैक्सी स्टैंड से पूछताछ की। वहाँ से मालूम हुआ कि कोई नरेश नामक ड्राइवर कुछ ही देर में मेरे पास पहुँच जाएगा। सवा छह बज गए तो तब भी नरेश न पहुँचा। फिर गुस्से में फोन किया तो मालूम हुआ कि नरेश को तो अब तक पहुँच जाना चाहिए था। घड़ी पर नज़र गई तो 6:25 बज रहे थे। अब देहरादून जाने का सवाल ही नहीं था। टैक्सी स्टैंड वालों को गालियाँ देते हुए मैंने निश्चय किया कि मैं इस मामले को उपभोक्ता अदालत तक ले जाऊँगा और अपना पूरा हर्जाना वसूल करके रहूँगा। इस बीच दो - तीन मित्रों से भी बात की तो वे भी टैक्सी स्टैंड वालों के ऐसे ही किस्से सुनाने लगे। खैर, सात बजे मुझे टैक्सी स्टैंड से जो फोन आया, उसने इस पूरे मामले को ही बदल दिया। पता चला कि जब नरेश गाड़ी लेकर मेरे घर आ रहा था तो वह एक तेज़ रफ़्तार ट्रक की चपेट में आ गया और अब वह बेहोशी की हालत में अस्पताल में है। अगले ही क्षण मैं भगवान से नरेश की सलामती के लिए प्रार्थना कर रहा था।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

रश्मि लहर 2023/09/15 05:29 PM

बहुत अच्छी लघुकथा !

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु

स्मृति लेख

लघुकथा

चिन्तन

आप-बीती

सांस्कृतिक कथा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

व्यक्ति चित्र

कविता-मुक्तक

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं