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शव यात्रा  

सरकारी समय में शव यात्रा करके पुण्य कमाने में चकोर जी ने कभी कोई कंजूसी नहीं की। जैसे ही दफ़्तर में किसी के स्वर्ग सिधारने का समाचार पहुँचता, चकोर जी सीधे मुखिया के पास जाकर उन्हें इतला करते कि वे कुछ देर बाद " निगम बोध घाट" जाएँगे और फिर वहीं से घर चले जाएँगे। चकोर जी फिर मुखिया की स्वीकृति सूचना मुझे देकर आनन-फानन में अपनी कर्तव्य स्थली के लिए रवाना हो जाते। 

दरअसल, हम एक ही विभाग में थे और उनकी फ़ाइलों को तब मुझे निपटाना पड़ता था। ख़ैर, एक दिन मुझे भी उनके साथ जाना पड़ा। उस दिन हमारे एक भूतपूर्व अफ़सर चल बसे थे। निगम बोध जाने से पहले वे बोले, "यार कुछ खा-पी के चलते हैं; अभी तो वे लोग लकड़ी वग़ैरा तुलवा रहे होंगे।" उदरपूर्ति के बाद उन्हें बैंक का कुछ निजी काम याद आया। जब हम निगम बोध घाट पहुँचे तो भूतपूर्व अफसर का शव पंच तत्वों में समाहित हो चुका था और चकोर जी चेहरे पर उदासी का लेप लगाए किसी से कह रहे थे– "इंसान सारी ज़िंदगी भागने में गँवा देता है और जब जाता है तो ख़ाली हाथ जाता है।" 

कुछ देर बाद निगम बोध घाट से वापसी के वक़्त चार्म्स की सिगरेट सुलगाते हुए चकोर जी ने मेरे से कहा था, "सुन यार, कल वो गोल्ड कंपनी का बंदा आएगा, उससे दस परसेंट की बात करनी होगी।" बहरहाल, चकोर जी की ये बातें मुझे आज इसलिए याद आ रही हैं कि अभी कुछ देर पहले मैं चकोर जी की शव यात्रा से लौटा हूँ और उन्हें भी ख़ाली हाथ ही जाना पड़ा। 

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टिप्पणियाँ

डॉ पदमावती 2021/08/03 10:06 PM

इसे ही शायद शमशान वैराग्य कहा जाता है जो अहाते के अंदर ही पैदा होकर वहीं छूट जाता है वरना दुनिया आगे कैसे बढ़े । बधाई

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