अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

स्वारथ लागि

शुक्ल जी से मुलाक़ात यही कोई दो महीने पहले हुई। वे बालकनी में धूप सेक रहे थे और मुझे अपने फ़्लैट के लिए उधर से जाना पड़ता है। सन् 1933 में जन्मे शुक्ल जी इधर अपने बेटे-बहू के साथ रहते हैं। शुरूआत में तो मुलाक़ात दुआ-सलाम तक रही लेकिन बाद में जब मुझे पता चला कि वे बीते वक़्त में गीत भी लिखते रहे तो मेरी उनमें दिलचस्पी बढ़ती गई। ख़ैर, अभी सप्ताह पहले वे मुझे फिर बालकनी में मिले तो मैं उनसे बतियाने लगा। वहीं रेलिंग के सहारे खड़े-खड़े मैंने उनसे उनके एक गीत के कुछ छंद सुने। उस दिन मैंने उनसे आग्रह किया कि वे कभी शाम को आ सकें तो मुझे अच्छा लगेगा। सौभाग्यवश, कल वे हमारे फ़्लैट में आए तो यही कोई दो घंटे तक हम पति-पत्नी उनके गीतों का आनंद लेते रहे। बहरहाल, बाद में वे बातचीत के दौरान अपनी स्वर्गीय पत्नी की बात करने लगे जिनका देहांत 4 वर्ष पूर्व हुआ था। उनका कहना था कि पत्नी के स्वर्गवास के बाद उनकी जीने की चाह समाप्त सी हो गई है। मुझे उनके पत्नी-प्रेम को जानकर बेहद सुखद अनुभूति हो रही थी लेकिन जब उन्होंने इस चर्चा को आगे बढ़ाया तो मुझे "सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥" का प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया। उन्होंने बताया कि अपने वैवाहिक जीवन के दौरान उन्होंने नौकरी करने और गीत लिखने के अलावा कभी कुछ नहीं किया। उनकी गृहस्थी का सारा भार उनकी पत्नी उठाती रही। खाना बनाना, कपड़े धोना, घर की सफाई, बच्चों की देखभाल, मेहमाननवाज़ी, और घरेलू सामान की ख़रीद आदि सभी कुछ उनकी पत्नी किया करती थी। अफ़सोस तो मुझे तब हुआ जब वे सगर्व यह बता रहे थे कि उनके जूतों पर पॉलिश करने का कार्य भी उनकी पत्नी किया करती थी। इसके बाद वे जो कुछ बोले, मैं उसे सुन न सका क्योंकि मैं सोचने लगा कि उनकी जो तस्वीर कुछ देर पहले तक मेरे मन में थी, उसे वे अब गंदला करते जा रहे हैं।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु

स्मृति लेख

लघुकथा

चिन्तन

आप-बीती

सांस्कृतिक कथा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

व्यक्ति चित्र

कविता-मुक्तक

साहित्यिक आलेख

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं