आदिवासी बच्चियाँ
काव्य साहित्य | कविता जयचन्द प्रजापति ‘जय’1 Dec 2025 (अंक: 289, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
ठंड में भी कम वस्त्र में
आदिवासी बच्चियाँ
टहनियाँ बीन लाती हैं बग़ीचे से
खाना पकाने के लिये
वह ईंधन की व्यवस्था करती हैं
सहती हैं हर मार प्रकृति की
फिर भी नहीं टूटती हैं बच्चियाँ
मुस्कुराते हुए
सूअर चरानें जाती हैं
भयंकर ठंड में भी
हँसती मिलती हैं ये बच्चियाँ
फटे पतले कपड़ों में
बाग़ से फल लाती हैं
खेतों में गिरे दाने भी
वह बीनते नज़र आती हैं
कभी-कभी किसी के घर
मिल जाती हैं काम करते
कुछ पोटली में लिये हुए
मुस्कुराते हुए
माँ के साथ बाल मनुहार करने लगती हैं
ये बच्चियाँ किसी से विवाद नहीं करती हैं
किसी की तीखी बातों का
हँस के सुन लेती हैं
ये प्यारी आदिवासी बच्चियाँ
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