पीढ़ियाँ
काव्य साहित्य | कविता जयचन्द प्रजापति ‘जय’1 Dec 2025 (अंक: 289, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
वे बच्चे
इंतज़ार करते हैं
जिनके पापा शहरों में रहते हैं
बड़ी आशा लिये
खड़े होकर टीले पर से
ताकते रहते हैं
पैसा आयेगा
नया कपड़ा लूँगा
मेला देखने जाऊँगा
प्रबल भावनाएँ लिये
बड़ी तीव्रता से
इंतज़ार में रहते हैं
गाँव के कोने में
डरे हुए
किसी की ज़मीन पर
टूटी झोपड़ी में रहते हैं
उन्हें पापा का
सहारा नज़र आता है
माँ बच्चों के सहारे जीती है
पापा दोनों के लिये जीता है
इसी तरह से
वहाँ कई पीढ़ियाँ गुज़र रहीं हैं
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